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असहमति, वैष्णवाचार्य और धर्मसुधारकों की सक्रियता है। भागवत को चतुर्थ प्रस्थान तथा भक्ति का प्रस्थानग्रंथ कहा गया। वैष्णवाचार्यों ने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखते हुए नई व्याख्याएँ की और उनके नाम पर दार्शनिक संप्रदाय बने। रामानुजाचार्य ने श्री संप्रदाय के विशिष्टाद्वैत को अग्रसर किया और वे शांकर वेदांत की निराकारी व्याख्या को अस्वीकार कर देते हैं। उन्होंने ईश्वर को ज्ञान, भक्ति, करुणा के समुच्चय रूप में देखा। ईश्वर-जीव-संबंधों की व्याख्या करते हुए उन्होंने भगवान को अशेषी (स्वामी) कहा और जीव को शेष अथवा दास। रामानुज का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रदेय है : 'प्रपत्ति दर्शन' अथवा दास्य भक्ति, जो ऐसा समर्पण भाव है, जिसमें सब ईश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं। इस शरणागति भाव से भक्ति मार्ग को नया विकास मिला क्योंकि सब जातियाँ इसमें सम्मिलित हो सकती थीं। इस दृष्टि से प्रपत्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व है, विशेषतया मध्यकालीन जाति-व्यवस्था को देखते हुए। अपने ग्रंथ 'श्रीभाष्य' में दार्शनिक निष्पत्तियाँ प्रतिपादित करते हुए वे ज्ञान-भक्ति के संयोजन में विश्वास व्यक्त करते हैं। रामानुजाचार्य का प्रदेय यह कि उन्होंने प्रस्थानत्रयी की व्याख्याओं में प्रपत्ति अथवा शरणागति भाव का आग्रह किया क्योंकि सामान्यजन के लिए अपेक्षाकृत यह सहज मार्ग है। उन्होंने देवस्थानों के निर्माण में रुचि ली और उन्हें वैष्णव केंद्रों के रूप में विकसित किया जहाँ से भक्ति आंदोलन अग्रसर हुआ। भक्ति को व्यापकता देने में रामानुज की भूमिका असंदिग्ध है : 'भक्ति के द्वार शूद्र, अंत्यज, निम्न वर्ग के लिए खुले और उन्होंने व्यवस्था की कि शूद्र भी मंदिर में दर्शन कर सकें' (ताराचन्द : इन्फ्लुएंस ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर, पृ. 102)। विद्वानों द्वारा रामानुजाचार्य के प्रभावी व्यक्तित्व को एक दार्शनिक समाज-सुधारक के रूप में देखा जाता है। वे एक ऐसे समय में थे, जब शंकराचार्य की अद्वैत वेदांती व्याख्या का बौद्धिक आतंक पंडित वर्ग पर था, दूसरी ओर जातिवादी व्यवस्था में उलझे समाज में अनिर्णय की स्थिति थी। प्रपत्ति अथवा शरणागति भाव के माध्यम से उन्होंने एक ऐसे सहज मार्ग की खोज की जिस पर चलना कठिन नहीं था। रामानुजाचार्य ने मध्यकालीन भक्ति को सामाजिक प्रस्थान दिया और उत्तर-दक्षिण को जोड़ने का सांस्कृतिक कार्य किया : 'भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानन्द।'
___ वैष्णवाचार्यों में मध्व ने विष्णु को महत्त्व दिया, जिससे भक्ति भावना को गति मिली। दर्शन में वे द्वैतवादी हैं और भगवान-भक्त दोनों को स्वीकारते हुए उन्होंने प्रवृत्ति दर्शन की स्थापना की और जगत् को असत्य मानने से इनकार किया। यहाँ वैराग्य कोई अनिवार्यता नहीं है और कहा गया कि निष्काम कर्म करते हुए भक्तिमार्ग अपनाया जा सकता है। उन्होंने 'अणुभाष्य' में ईश्वर को अनंत गुण-सम्पन्न माना, कहा कि जीव का ब्रह्म में लय होना भक्ति का परम लक्ष्य है और सायुज्य मुक्ति सर्वोपरि है जहाँ जीव ईश्वर से एकाकार होता है। मध्वाचार्य के चिंतन से गृहस्थ के लिए भी भक्ति का मार्ग सुलभ हुआ क्योंकि वहाँ संन्यास अनिवार्य नहीं
54 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन