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में भक्तिचेतना का प्रसार देखा जा सकता है।
भक्ति आंदोलन और मध्यकालीन भक्ति साहित्य भक्ति की व्यापक चेतना का बोध कराते हैं। उसकी प्रशस्त चिंतन भूमि है जहाँ प्रस्थानत्रयी, भागवत आदि के भाष्य के माध्यम से सूक्ष्मतम विचार प्रस्तुत किए गए : जीवन-जगत्-माया की स्थिति, परमेश्वर का स्वरूप, जीव-ब्रह्म के संबंध, परम सत्य, साधना मार्ग आदि। इस ज्ञान-चर्चा के अतिरिक्त उसका सामाजिक पक्ष है कि पांडित्य की सीमाएँ पार करते हुए, सामान्यजन को कैसे संबोधित किया जाय और इस दृष्टि से चिंतकों का रूप समाज-सुधारक का भी है। इस पीठिका पर भक्तिकालीन रचनाशीलता है, जो संपूर्ण देश में विद्यमान है और जिसका प्रभाव व्यापक है। मध्यकालीन भक्ति के नए उन्मेष के लिए रामानन्द का सादर उल्लेख किया जाता है, जिनकी शिष्य-प्रशिष्य-परंपरा की लंबी सूची है, जिसमें हर जाति-बिरादरी के लोग हैं। रामानन्द को दार्शनिक भूमि पर विशिष्टाद्वैत से संबद्ध किया जाता है, जो रामानुजाचार्य का भी मत है। पर यहाँ स्वीकृति सीता-राम को है, जिन्हें मोक्ष का साधन माना गया। प्रपत्ति (शरणागति) का जो भाव रामानन्द में वर्णित है, उसमें सब सम्मिलित हो सकते हैं, यहाँ वर्ण-जाति-वर्ग का कोई भेद नहीं है। ईश्वर-अनुग्रह (ईश-कृपा) से ही भक्ति संभव है। रामानन्द की महत्त्वपूर्ण भूमिका यह कि वे भक्ति को सहज सामान्य भूमि पर लाकर प्रस्तुत करने का सक्षम प्रयत्न करते हैं और इस दृष्टि से मध्यकाल के विशिष्ट समाज-सुधारक हैं। 'रामानन्द ने भक्तिधारा को नई सर्जनात्मक दिशा देने में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया। निश्चित ही वे रामानुजाचार्य-राघवानन्द की परंपरा से जुड़े हैं, पर अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति वे मध्यकाल के सबसे सचेत संत हैं। वे भक्ति को ऐसी सहजता देते हैं कि बिना किसी बड़ी तैयारी के, कोई भी व्यक्ति उसमें सहज भाव से सम्मिलित हो सकता है। उनके समय तक समाज में अनेक अंतर्विरोध जनम चुके थे और कई विचारधाराएँ एक-दूसरे से टकरा रही थीं। रामानन्द ने जागरूक व्यक्तित्व से सब कुछ देखा-सुना और फिर भक्ति को सामाजिक चेतना से संपन्न करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया' (प्रेमशंकर : भक्तिकाव्य की भूमिका, पृ. 125)।
रामानन्द मध्यकालीन उदार चिंतन के प्रतीक हैं, जिन्होंने भक्तिकाव्य को नई दिशाओं में अग्रसर किया। रामानुज ने जिस 'प्रपत्ति' को ईश्वर-प्राप्ति का साधन माना, उसे रामानन्द ने नया अर्थ-विस्तार दिया। भक्ति उनके लिए जाति-वर्णरहित मार्ग है, जहाँ न शास्त्र की आवश्यकता है, न कर्मकांड की। यहाँ शास्त्रीयता-पांडित्य परिपार्श्व में चले जाते हैं और अन्य मध्यस्थ भी। जीव ब्रह्म से सीधा साक्षात्कार कर सकता है, आराधक अपने आराध्य से। ऐसा प्रतीत होता है कि रामानन्द अपने समय की जटिलताओं से परिचित हैं और उनकी सजग सामाजिक चेतना सहज भक्ति-पंथ तलाशती है। रामानुज के समान वे भी समर्पण, दास्य-भाव का आग्रह
56 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन