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भक्तिकाव्य का स्वरूप
भक्ति-भावना के स्रोतों की खोज के लिए विद्वान वैदिक-युग तक जाते हैं, पर उसकी यात्रा कुछ प्रमुख चरणों में हुई है। इसे भारतीय संस्कृति के विकास और आत्मसंघर्ष के रूप में भी देखा जाना चाहिए कि वह किस प्रकार स्थितियों से टकराती. स्वयं को अग्रसर करती रही है। आरंभिक वैदिक युग में प्रकृति प्रमुख स्थान पर है और इंद्र सर्वोपरि देव हैं। उपनिषदों में भक्ति-दर्शन उभरा है और जब विष्णु आए तब वैष्णव धर्म को विकास मिला। प्रायः महाभारत के शांतिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में श्वेत द्वीप का उल्लेख किया जाता है जहाँ वैष्णव भक्ति का विवेचन है। विष्णु-नारायण-वासुदेव का मिलन वैष्णव धर्म को नई गति देता है, जिसे भागवत धर्म भी कहा गया। गीता में भक्ति को योग का धरातल दिया गया, पर उसे उच्चतर मूल्यों से संबद्ध किया गया : द्वेषभावरहित, निःस्वार्थ, सर्वप्रेमी, दयालु, अहंकार-मुक्त, निर्विरागी, क्षमाशील, संतुष्ट, जितेंद्रिय, संकल्पी, समभावी आदि (गीता : 12:13-19)। पुराण युग में गाथा-संसार बना, देवत्व के मानुष रूप की प्रक्रिया में गति आई, लीला-जगत् निर्मित हुआ। ईसवी की आरंभिक शताब्दियों में भक्ति का प्रस्थानग्रंथ भागवत आया। 'भक्ति-चिंतन की भूमिका' पुस्तक में भक्ति की विकास-यात्रा पर विचार किया गया है।
मध्यकालीन भक्तिकाव्य की पीठिका में प्राचीन भक्ति-चिंतन और भक्ति आंदोलन उपस्थित हैं, यह सर्वस्वीकृत है। विद्वानों ने इस संदर्भ में कई प्रश्न उठाए और उनका तार्किक समाधान पाने का प्रयत्न किया। भक्ति का प्रस्थान भागवत है, जिसे प्रस्थानत्रयी-ब्रह्मसूत्र, उपनिषद, गीता के क्रम में चतुर्थ प्रस्थान कहा गया जिसके मौखिक रूप ने छठी-नौवीं शताब्दी के बीच निश्चित आकार लिया और यही समय आलवार संतों का है, जिन्हें भी भक्ति का आरंभ कहा गया। सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के शिष्य सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने दो खंडों के अपने ग्रंथ 'द फ़िलॉसफी ऑफ द श्रीमद्भागवत' में इसे महापुराण रूप स्वीकारते हुए लिखा है कि इसमें तमिल संतों
50 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन