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फ़ीरोज़शाह के राज्यकाल में लिखी गई। दक्खिनी बहमनी सुल्तानों से प्रांतीय भाषाओं को प्रोत्साहन मिला और दक्षिण के विजयनगर राज्य की सांस्कृतिक सक्रियता, विशेष रूप से मंदिर-निर्माण में देखी जा सकती है, जैसे कृष्णदेव राय का कांचीपुरम् में निर्माण। उसे 'आंध्र-भोज' कहकर संबोधित किया गया जिसने तेलुगु साहित्य को प्रश्रय दिया (आर. सी. मजूमदार (सं.) : द देलही सल्तनत, पृ. 320)।
संस्कृति एक सामूहिक, बौद्धिक प्रयत्न है जो विचार, दर्शन, साहित्य, कला में विकास पाती है। यह सभ्यता का अगला चरण है। मध्यकाल में कई वर्गों का इसमें योगदान है और उदार शासक इनमें एक हैं। बुद्धिजीवी वर्ग ने प्रायः पांडित्य, शास्त्रचर्चा में रुचि ली और इससे भाष्य-परंपरा को नया विकास मिला। संतों का संसार मूल्यचिंता का है और वे सामंती समाज का विलोम जैसा दिखाई देते हैं। एक
ओर वैभव-विलास का सामंती परिवेश है, दूसरी ओर संतों का आध्यात्मिक संसार है जहाँ मुख्य बल आचरण पर है। मदरसा, पाठशाला की शिक्षा में धर्म को स्थान था, पर संतों का आग्रह जीवनानुभव से प्राप्त ज्ञान पर था। अकबर ने शिक्षा में दर्शन, व्याकरण, न्याय के साथ व्यावहारिक विषयों का प्रवेश कराया (आइने अकबरी : भाग 2, पृ. 239)। इतिहासकारों का कथन है कि फ़ीरोज़शाह तुगलक आदि उदार शासकों ने मध्यकाल में शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया, जिसका विकास मुगलकाल में हुआ। हौज़ खास का बड़ा मदरसा लगभग सत्तर एकड़ में बना था, जिसमें सभी व्यवस्थाएँ निश्शुल्क थीं। पाठशाला-मदरसा के नए स्वरूप से नई चेतना का विकास हुआ। काशी, नादिया, मथुरा, प्रयाग, मिथिला, श्रीनगर आदि के विद्या संस्थानों में उच्च शिक्षा का प्रबंध था, जहाँ के अध्यापक समाज में आदरणीय थे। बौद्धिक परिवेश ने मध्यकालीन जागरण में इस दृष्टि से सहायता की कि प्राचीन ग्रंथों की नई व्याख्याएँ प्रस्तुत हुईं, और परोक्ष ही सही, पर सांस्कृतिक चेतना के निर्माण में उनकी एक भूमिका है। जिन्हें समाज-सुधारक कहा गया, उनके भी दो वर्ग कहे जा सकते हैं पर उनकी संख्या अधिक थी, जो सामान्य वर्ग से आए थे और पांडित्य का दावा नहीं कर सकते थे। पर जो शास्त्र के ज्ञाता थे, वे भी धार्मिक कट्टरता से मुक्ति में सहायक थे, जैसे अप्पय दीक्षित, पंडितराज जगन्नाथ, मधुसूदन सरस्वती आदि कुछ नाम हैं। भक्ति आंदोलन सभी वर्गों के सम्मिलित प्रयत्न की उपज है जो पूरे मध्यकाल में सक्रिय है और इसे नए स्वाभाविक सांस्कृतिक उन्मेष के रूप में देखना होगा, जहाँ संकीर्णताएँ टूटती हैं, जाति-बंधन शिथिल होते हैं, कर्मकांड की अनिवार्यता नहीं रहती और बल शुद्ध आचरण पर है। कृतिवास ओझा को बांग्ला काव्य का पिता कहा जाता है जिन्होंने रामायण को नया रूप दिया (1418)। रामानन्द जैसे आचार्य हैं जो पंडित होकर भी, सामान्यजन में प्रभावी बनते हैं और जिनके शिष्यों में निम्नवर्ग के लोग भी हैं। डॉ. रामरतन भटनागर का विचार है कि रामानन्द में चिंतन की समन्वित भूमि है, जिसमें कई परंपराएँ घुल-मिल गई हैं। विशुद्ध भावभूमि
48 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन