________________
जाते हैं। अबुल फज़ल ने टिप्पणी करते हुए लिखा है कि समाज में अधोमुखी वृत्तियाँ होती हैं और ऐसे में बादशाह का नैतिक दायित्व होना चाहिए कि वह उच्चतर मूल्य स्थापित करे (आइने अकबरी, खंड दो, पृ. 285-86)। सामंती समाज की कठिनाइयाँ थीं, ऐसे में उस समय के संत-भक्त कवि समाज-सुधारक भी कहे जा सकते हैं और सांस्कृतिक चित्र को पूर्णता देने के लिए उनकी भूमिका विचारणीय है।
मध्यकाल में उदार-कट्टर दृष्टियों की टकराहट मध्यकालीन विचारधारा और संस्कृति की सही समझ में सहायक है। दोनों प्रमुख जातियों में इनके प्रतिनिधि हैं, अपने निहित आशय के लिए। पर अकबर जैसे शासक यह नहीं स्वीकार करते कि राज्य को किसी पर धर्म थोपने का अधिकार है, और इसलिए वह अधिक उदार नीति का पोषक है (परमात्मा सरन : द प्राविंशियल गवर्नमेण्ट ऑफ़ मुग़ल्स, पृ. 430)। अकबर और औरंगजेब की पृथक् दृष्टियाँ बताती हैं कि उदार-अनुदार विचारधाराएँ संघर्षरत थीं। स्थापत्य, मूर्ति, शिल्प, वास्तु आदि की चर्चा अपने स्थान पर उपयोगी है, पर इससे मध्यकालीन भारत का सांस्कृतिक चित्र पूर्ण नहीं होता और इसके लिए उस समय की विचारधाराओं को समझना होगा। क्षितिमोहन सेन की पुस्तक 'मेडिवल मिस्टिसिज़्म इन इंडिया' में आर्थोडाक्स तथा लिबरल थिंकर्स (रूढ़िवादी तथा उदार विचारक) की चर्चा हुई है। उनका विचार है कि मध्यकाल के आरंभिक चरण में भारतीय समाज की वह ग्रहणशीलता दुर्बल थी, जिसने अब तक अनेक प्रकार की चिंतनधाराओं के द्वार उसके लिए उन्मुक्त रखे थे। बौद्धिक प्रतिभा, तार्किक क्षमता की कमी न थी, पर चिंतकों में संयोजन-समीकरण के तत्त्व क्षीण थे (पृ. 7)। कट्टरता दोनों जातियों के धर्मनियामकों में थी, जिसे बनाए रखने में उनके निहित स्वार्थ भी थे। पर विचारणीय तथ्य यह कि धार्मिक अंकुश के बावजूद, धर्मभीरु सामान्यजन, विशेषतया निम्न कहे जाने वाले वर्ग में सुगबुगाहट थी, विचलन का भाव था। कुछ बुद्धिजीवियों ने भी इस अंसतोष को पहचाना और सामाजिक सुधार के लिए आगे बढ़े, आंशिक ही सही। छठी-नौवीं शताब्दी के बीच आलवार संतों ने तमिल भाषा में रचना की और प्रायः वे सामान्य वर्ग से आए थे, जिनमें आण्डाल महिला भी थी। दक्षिण के रामानुजाचार्य (1016-1137) ने प्रपत्ति-दर्शन की प्रतिष्ठा सामान्यजन के लिए की, शास्त्र को भावात्मक विस्तार दिया और अपनी सीमाओं में वे मध्यकाल के उदार वैष्णवाचार्यों में स्वीकारे जाते हैं (रा. गो. भंडारकर : वैष्णव, शैव और अन्य धार्मिक मत, पृ. 62)।
___ मध्यकालीन सांस्कृतिक विवेचन में प्रायः वेश-भूषा, खान-पान, भवन-निर्माण, मेला-उत्सव, तीज-त्यौहार, शिक्षा-कला आदि के विवरण दिए जाते हैं। प्रमाणित किया जाता है कि प्रमुख जातियों में संवाद की जो प्रक्रिया क्रमशः विकसित हुई, उससे सभ्यता-संस्कृति का एक मिला-जुला संसार बनाने का प्रयत्न हुआ, यद्यपि जातीय पार्थक्य बना रहा। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हुए, इसमें संदेह नहीं और इसके प्रमाण
46 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन