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पुराने संस्कारों, रीतियों, यहाँ तक कि कुछ प्रचलित परंपराओं से पूरी मुक्ति पाना सरल नहीं था। इस बिंदु पर जातीय सौमनस्य का विकास हुआ कि कई परंपराओं में, विशेषतया लोकोत्सव में वे एक साथ थे। इस दृष्टि से भारत का मध्यकालीन ग्राम-समाज पारस्परिक निर्भरता और सहयोग का उत्कृष्ट उदाहरण है। पेशे में लगे लोगों में एक भाईचारा था, वे किसी भी जाति के हों। गाँव का खुला जीवन सौमनस्य का बोध कराता है, व्यवहार-स्तर पर, जिसमें जातियों में आपसी संवाद है।
भारतीय मध्यकाल में कई संसार एक-साथ देखे जा सकते हैं, और इनसे मिलकर उस समय का सामाजिक-सांस्कृतिक वृत्त पूरा होता है। जातियों का पार्थक्य था जिसे कट्टर पुरोहित, उल्मा बनाए रखने में रुचि रखते थे, क्योंकि उनके निहित स्वार्थ थे। संसार के इतिहास में सभी धर्मों-संप्रदायों के कट्टरपंथियों में इस प्रकार के अनुदारवादी दृश्य देखने को मिलते हैं, जिससे जातीय टकराहट बढ़ती है। साथ ही समाज में अंधविश्वास, रूढि, कर्मकांड आदि के प्रतिगामी विचार फैलते हैं। शास्त्र की मनचाही व्याख्याएँ कट्टरपन की उपज कही जा सकती हैं, जब उसके सहारे समाज को संचालित करने का प्रयत्न किया जाता है। समय के साथ परिवर्तन एक प्रगतिशील कदम है
और अपनी सीमाओं में मध्यकाल ने इस दिशा में प्रयत्न किए। हिंदू जाति कई उपजातियों में विभाजित थी और वर्ण-भेद के अतिरिक्त अस्पृश्यता का अभिशाप भी मौजूद था। समाज की सेवा करते हुए उनके जो पेशे निम्न मान लिए गए उनके कारण उन्हें दूर रखा गया, शूद्र-अंत्यज आदि । ब्राह्मण-पुरोहित, मौलवी-उल्मा जो कि शास्त्र के व्याख्याता थे और पुरोहित भी, उनमें अधिक संवाद संभव न था और उन्हें मध्यकालीन कट्टरता का प्रतीक कहा जा सकता है। पर उनके अपने भी विचार-विभेद थे, जैसे शिया-सुन्नी अथवा शैव-वैष्णव के। एक ऐसी वैचारिक टकराहट थी, जिसका कोई व्यापक बौद्धिक आधार नहीं कहा जा सकता, वरन् वह पांडित्य का कुतर्क भी हो सकता है। बौद्धिक स्तर पर अलगाव कम करने की दिशा में एक प्रयत्न मुसलमान शासकों द्वारा भारतीय जीवन को जानने का प्रयत्न है। अलबरूनी के अरबी ग्रंथ 'तारीखे हिंद' का विशेष उल्लेख किया जाता है, जिसमें हिंदू धर्म, दर्शन, ज्ञान का विवरण है। रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण आदि का अनुवाद फ़ारसी में किया गया। स्वीकार करना होगा कि राजाश्रय के होते हुए भी बौद्धिक स्तर पर विचार-विनिमय का प्रयत्न सीमित रहा और इसे पूरी गति नहीं मिली। इसके लिए मध्यकाल के संत-भक्तिकाव्य ने अधिक सार्थक पहल की, जहाँ सांस्कृतिक सौमनस्य, उदारता, सहिष्णुता की प्रवृत्तियाँ मुखर हुई हैं। यह वृत्त सिद्ध-नाथ (800-1200 ई.) से आरंभ होकर रामांनद (चौदहवीं शती), कबीर-जायसी से होता हुआ गुरु नानकदेव (1469-1538) तक फैला हुआ है।
मध्यकालीन भारतीय संस्कृति को विशेषतया सल्तनत काल (1192-1526) तथा मुगलकाल (1526-1707) के मध्य स्थित किया जाता है। इसके अलग-अलग
44 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन