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इतना ही समय पार करता है, पर जो नगर-समाज सल्तनतकाल में बना था, उसे . वह अपने ढंग से विकसित करता है और ग्राम-व्यवस्था की ओर भी उसका ध्यान जाता है। टोडरमल के प्रयत्न इस दिशा में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, यद्यपि विद्वानों का विचार है कि इसमें मूल मंशा राजकोष में वृद्धि है।
ज्यों-ज्यों राज्य-विस्तार हुआ, शासकों के समक्ष यह समस्या थी कि केंद्रीय सत्ता को सदर क्षेत्रों तक पहुँचाने की व्यवस्था कैसे की जाय। केवल केंद्र से सब कछ संचालित करना संभव न था। सल्तनतकाल में संपूर्ण व्यवस्था को सूबों में बाँटा गया, जिनमें अमीर. मलिक, खान आदि सामंती प्रतीक हैं। दिल्ली के आस-पास जो उपनगर बने वहाँ केंद्रीय सत्ता द्वारा पोषित विशिष्ट वर्ग थे (ए. के. सेन : पीपुल एंड पॉलिटिक्स इन मेडिवल इंडिया, पृ. 87)। सूबेदारी की यह व्यवस्था मुगलकाल में और सुदृढ़ हई। राज्य-विस्तार इतना अधिक हो गया था कि मुग़ल साम्राज्य का संपूर्ण संचालन दिल्ली, आगरा से कर पाना संभव न था। विश्वसनीय सूबेदारों के सहारे केंद्रीय सत्ता को स्थिर करने का प्रयत्न हुआ। अकबर जैसे दूरदर्शी ने मानसिंह को महत्त्वपूर्ण पद दिया और राजपूतों का विशिष्ट सहयोग लिया। सूबेदार अपने-अपने सूबों में भी नगर-सभ्यता का निर्माण करने लगे और एक नई नगर-संस्कृति का विकास हुआ, जिसमें केंद्रीय सत्ता के अनुगमन का प्रयत्न था।
मध्यकाल की नगर-सभ्यता में उच्च वर्ग को प्रमुखता मिली जिसमें राजाश्रय की प्रधानता है। राजकुल से किसी भी रूप में संबद्ध व्यक्ति प्रभावी अधिकारी हैं, जिनका दरबार-ए-ख़ास है, विशिष्ट जन का प्रयत्न : अमीर-उमरा, जागीरदार, मनसबदार आदि इसमें सम्मिलित हैं। इस नगर-समाज की एक अपनी आचार-संहिता है, वैभव के इर्द-गिर्द परिक्रमा करती और इसका एक पूरा तौर-तरीका है, आभिजात्य का प्रतीक। किले और महल के भीतर का यह जीवन नगर-सभ्यता को व्यक्त करता है। खान-पान, आचार-व्यवहार, वेश-भूषा सबमें मध्यकालीन नगर सभ्यता एक आभिजात्य का बोध कराती है, जिसके केंद्र में प्रमुख शासक था और उसका अनुगमन करते अन्य सामंत। ऐसे में विलास-सामग्री का नया व्यवसाय आरंभ हुआ और शिल्पी-कारीगरों की नई बिरादरी में वृद्धि हुई । मध्यकालीन स्थापत्य-कला में इसे विशेष रूप से देखा जा सकता है जहाँ किले के भीतर विलास-भवन की व्यवस्था की गई, सुरक्षा की दृष्टि से। जहाँ तक सामंती अभिजन समाज का प्रश्न है, विश्व के प्रायः सभी साम्राज्यों में इसके प्रतीक भिन्न नाम-रूप में मिलते हैं-नोबुल, बैरन आदि। पर भारतीय मध्यकाल में इसके चारों ओर जो नगर-सभ्यता विकसित हुई, वह साम्राज्य का अभिन्न अंग जैसी है तथा नगर के उच्च वर्ग में यह सांस्कृतिक मेल-जोल का एक उपक्रम भी है। उत्सवधर्मिता का माहौल यह कि अकबर ने मुस्लिम त्यौहारों के साथ हिंदू, पारसी उत्सवों की भी व्यवस्था की। शिक्षा, साहित्य, कला केंद्रों के रूप में मध्यकालीन भारतीय नगरों का विकास इतिहास का उल्लेखनीय पक्ष है।
मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति / 35