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दूसरों के श्रम पर जीता। ब्राह्मण, पुरोहित देवता-मंदिर-कर्मकांड के सहारे अपना काम चलाते थे। क्षत्रिय राजा के लिए सेना संगठित करने का कार्य कठिनाई के समय में करते थे। वणिक अवश्य व्यापार में लगा था, पर वह इस दृष्टि से चतुर शोषक था कि अधिकाधिक लाभांश मिलता रहे। जिन्हें निम्न जाति कहा गया, निम्नतम वर्ण और छोटे पेशे के कारण, वे भूमिहीन श्रमिक की स्थिति में थे, निर्धन-विपन्न।
ग्राम-समाज का वर्ण-वर्ग-भेद मध्यकाल का सबसे दयनीय पक्ष है, जिसमें कृषक और सामान्यजन की स्थिति चिंताजनक थी। भूमि-व्यवस्था के बदलते प्रयोगों में, कृषक-जीवन की दशा में उल्लेखनीय सुधार आधुनिक समय में भी नहीं हो सका, जिसका त्रासद चित्रण प्रेमचन्द ने अपने कथा-साहित्य में किया है। होरी जैसे पात्र इसका प्रतिनिधित्व करते हैं, कृषक रूप में, जो जमीन से बेदखल होकर मजदूर बन जाते हैं। सामान्य वर्ग के अन्य पात्र हैं जो निर्धनता का भार वहन करते हैं, जैसे कफ़न आदि कहानियों में। मध्यकाल में कृषक और निम्नवर्ग एक साथ कई यातनाओं से त्रस्त थे-प्राकृतिक विपदाओं से लेकर मानवीय अत्याचार तक। दुर्भिक्ष उन्हें भाग्यवादी बनाता था, जिसका लाभ पुरोहित वर्ग उठाता था-अंधविश्वास, कर्मकांड में उलझाता हुआ। गाँव में ही महाजन थे, महँगे सूद पर ऋण देते थे, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता था। बँधुआ मजूरी दास-प्रथा के कई रूप संसार में प्रचलित रहे हैं। विजेता अपने साथ दास लाते थे और उनसे बेगार लेते थे, जैसे यूनान, मिस्र, रोम आदि में। भारत में निम्न वर्ग उच्च वर्ग की मजूरी में लगा था, सेवा-टहल करता। अस्पृश्यता
और दासता को इतिहासकारों ने भारतीय मध्यकाल के प्रमुख अभिशापों के रूप में देखा है (ए. एल. श्रीवास्तव : मेडिवल इंडियन कल्चर, पृ. 25)। जीवन की मुख्यधारा से कटा-फटा ग्राम-समाज, बहुसंख्यक होकर भी मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक मानचित्र में नहीं आ पाता। वहाँ शिक्षा, साहित्य, कला के अभिजन प्रयत्न नहीं हैं, यद्यपि अपनी सहज लोककलाओं में वह रचना को आधारभूत सामग्री प्रदान करता
ग्राम की तुलना में भारतीय मध्यकाल का नगर-समाज है, इतिहास का दूसरा दृश्य प्रस्तुत करता। वह अल्पांश होकर भी प्रभावी क्योंकि शासक वर्ग और उससे संबद्ध उच्च वर्ग वहीं वास करते हैं। इतिहासकारों की आम राय है कि सल्तनत काल तो प्रायः नगर-केंद्रित ही था। पर जब मुगलकाल में केंद्रीय सत्ता का फैलाव हुआ और वह स्थायी हुई, तब अधिकार क्षेत्र ग्रामों तक बढ़ा-पटवारी आदि के माध्यम से । सल्तनतकाल के अंतिम दौर में बहमनी राज्य का टूटना और पाँच विभिन्न सल्तनतों का बनना (बरार, बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा और बीदर) प्रमाणित करता है कि सुल्तानों की तुलना में मुगलकाल की केंद्रीय सत्ता अधिक सुदृढ़ थी। जिसे सुल्तानों का तुर्क अफगान शासन कहा जाता है, उसका समय दो-तीन शताब्दियों का है और नगर-केंद्रित शासन-व्यवस्था में उनकी रुचि स्वाभाविक है। मुगलकाल भी लगभग
34 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन