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समय-समाज कई रूपों में प्रक्षेपित होते हैं जिनमें प्रमुख वह भी जिसे विचार, दर्शन, चिंतन अथवा जीवन-दृष्टि आदि नामों से अभिहित किया जाता है । मध्यकालीन भारतीय समाज के निर्माण शासकों के रुचि - बोध का आख्यान करते हैं, इसमें संदेह नहीं । किले, मस्जिदें, महल भव्य अथवा शानदार हैं जिन्हें 'ग्रैंड स्टाइल' कहा जाता है। इससे शासक का रुतबा व्यक्त होता है, जो प्रजा पर अपना प्रभाव स्थापित करे । पर शाहजहाँ तक आते-आते कला सौंदर्याभिरुचि से अधिक संपन्न हुई, जिसका एक उदाहरण ताजमहल है, जिसे 'संगमरमरी काव्य' कहा गया। कई कलाओं के मिश्रण से कला में वैविध्य आया और उसका उत्कर्ष हुआ । अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी नाम से नई नगरी बनाने का प्रयत्न किया, जिसे वह अपने उदार पंथ-सुलहकुल अथवा दीन-ए-इलाही के केंद्र रूप में विकसित करना चाहता था । कलाओं में विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण संवाद, संयोजन का बोध कराते हैं, जिससे मध्यकाल की विकसित होती सामासिक संस्कृति का परिचय मिलता है ।
यह तथ्य विचारणीय है कि जब भारत में इस्लामी शासन स्थिर होकर, केंद्रीकृत हुआ तो उसका एकायामी रूप नहीं था । उसमें इस्लाम की ही कई नस्लें थीं : अरब, मंगोल, अफ़गान, तुर्की, फ़ारस आदि की। इसमें धर्म-परिवर्तन से आने वाले व्यक्ति बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए (ज़िम्मी) जो अपने संस्कार साथ लाए थे । इस प्रकार मध्यकालीन समाज का एक सम्मिलित स्वरूप है, जिसमें वर्ण-वर्ग-भेद हैं । इस्लाम यों तो धार्मिक स्तर पर समानता की बात करता था, पर बाहरी नस्लों तथा भारत
जातीय ढाँचे के आधार पर, उसमें भी भेद थे । राजाश्रय से संबद्ध व्यक्ति विशिष्ट वर्ग में थे, मध्यकाल का अभिजन समाज । रक्त की शुद्धता का दावा मध्यकाल नहीं कर सकता क्योंकि उच्च इस्लामी वर्ग में बहुपत्नीप्रथा स्वीकृत थी, और 'हरम' के विवरण इतिहास-ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। मध्य एशिया से आए सुन्नी अधिक कट्टर माने जाते थे और इसकी तुलना में फारस के शिया अधिक उदार । सूफियों के संदर्भ में बारा-बेशरा का जो विवाद है, उसे मध्यकाल में दो दृष्टियों की भिन्नता के रूप में देखा जाना चाहिए। विद्वानों ने स्वीकारा है कि कई कठिनाइयों के बावजूद सूफी संतों का शासकों पर आध्यात्मिक प्रभाव रहा है (महमूद हसन सिद्दीकी : द मेमॉयर्स ऑफ सूफीज़ रिटेन इन इंडिया, पृ. 8 ) ।
बदलते समय-संदर्भ में मध्यकाल की धार्मिक दृष्टि में आंशिक परिवर्तन स्वाभाविक था। आरंभ में विजेताओं का गर्व था, जिसे अनुदारता, धर्म-परिवर्तन आदि में देखा जा सकता है। दूसरी ओर विजित जाति का पराजय भाव था, जिससे वह भीतर-भीतर और सिमटती - सिकुड़ती चली गई । पर सहअस्तित्व के लिए संवाद एक अनिवार्य प्रक्रिया है । आचार्य हजारीप्रसाद का विचार है कि यदि भारत में इस्लाम न आया होता तो भी भक्ति आंदोलन का उदय होता, जिसे वे भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास कहते हैं (हिंदी साहित्य की भूमिका, पृ. 2 ) । पर इसे स्वीकार
38 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन