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भारतीय समाज तक इसका प्रचार-प्रसार नहीं हो सका और यह सम्राट अकबर की कल्पना का दिवास्वप्न बनकर रह गया। इसकी ऐतिहासिक भूमिका इस रूप में स्वीकारी जाएगी कि मध्यकाल में यह सांस्कृतिक सौमनस्य का अभिनव प्रयास था। आर. कष्णमूर्ति ने अकबर की धर्म-दृष्टि को 'तौहीदे इलाही' के रूप में विवेचित करते हए, उसे एकेश्वरवाद का समर्थक निरूपित किया है, ईरानी सूफी अथवा भारतीय वेदांती की तरह (अकबर : द रेलिजस ऐस्पेक्ट, पृ. 147)। मध्यकालीन भारतीय समाज में उदारता की जो धारा प्रवाहित हुई, वह रेखांकित करने योग्य है और इससे चिंतन, साहित्य, संपूर्ण कला जगत् में नई संभावनाओं का उदय हुआ।
__ मध्यकाल को किस रूप में जागरणकाल की संज्ञा दी जा सकती है, यह प्रश्न विचारणीय है। प्रायः उसे उत्कर्ष के रूप में देखते हुए भवन-निर्माण, राजमहल, किले, स्थापत्य, वास्तुकला, साहित्य, कला आदि के दृष्टांत प्रस्तुत किए जाते हैं। केंद्रीय सामंतो समाज को इसकी सुविधा भी होती है क्योंकि भीतर थोड़ी व्यवस्था होती है और बाह्य आक्रमणों का भय अपेक्षाकृत कम रहता है। विश्व के इतिहास में इस प्रकार की सक्रियता यूनान, मिस्र, रोम आदि सभ्यताओं में भी देखी जा सकती है। पर विचारणीय यह कि जो सभ्यता निर्मित हुई, उसका कोई समग्र रूप है क्या ? और यदि है तो कैसा ? भारतीय समाज के वर्ण-विभाजित मूल ढाँचे में, आत्मसात करने की शक्ति क्रमशः कम होती गई, इसे स्वीकार करना होगा। कर्मकांड, अंधविश्वास, एक विचित्र प्रकार की रूढ़िवादिता हावी हुई, जिसे इस्लाम के आगमन के समय का जड़, निष्क्रिय समाज भी कहा जा सकता है, कम से कम चिंतन और विचार के धरातल पर। कर्मकांड और पुरोहितवाद को यदि भारतीय समाज की दुर्बलताओं में स्वीकारा जाय, तो मध्यकाल का आरंभिक दौर किसी बाहरी प्रहार को झेल सकने में समर्थ नहीं था। सामाजिक विकृतियों के विस्तार में जाए बिना कहा जा सकता है कि देश की प्रतिरोधक्षमता शिथिल थी, राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव था और एकता के सूत्र दुर्बल थे। भारत में इस्लामी सत्ता के आगमन के समय का खंडित भारत राजनीतिक दृष्टि से. अशक्त था। पर यह कहना सही नहीं होगा कि भारतीय चिंतन क्षमता ने भी पराजय स्वीकार कर ली थी। विपरीत इसके, वह पूर्ण पराभूत नहीं थी, भीतर-भीतर सक्रिय थी और उसने सांस्कृतिक हार नहीं मानी थी। रोमिला थापर के शब्दों में : 'आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक के काल को कभी-कभी अंधकार युग कहा जाता है, जब हिंदुओं की उच्च संस्कृति का ह्रास हुआ और राजनीतिक विशृंखलता के फलस्वरूप एक पूर्णतया विदेशी शक्ति को इस उपमहाद्वीप में विजय प्राप्त करने में सुविधा हुई। परंतु यह अंधकार युग न होकर निर्माणात्मक युग था, जिसका विस्तृत अध्ययन लाभप्रद हो सकता है' (भारत का इतिहास, पृ. 200)।
सामाजिक विकास की प्रक्रिया में राजनीति एक सीमा तक ही प्रभावी हो सकती है, संपूर्ण रूप में नहीं। ऐसा नहीं कि मध्यकाल में सब कुछ राजनीति-सत्ता-केंद्रित
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