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सबका ध्यान आकृष्ट करते थे (उत्तरी भारत की संत परंपरा, पृ. 77)।
धार्मिक सहिष्णुता और उदारता सांस्कृतिक संवाद की उपज हैं और सूफी संत इसका साक्ष्य हैं जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम ऐक्य को अग्रसर किया। अकबर इस दिशा में सबसे सजग इस्लामी शासक है कि उसने साम्राज्य-विस्तार के अनंतर उसके सांस्कृतिक एकीकरण का स्वप्न देखा। होली-दीवाली, ईद-मुहर्रम, शबेबरात आदि पर लोगों का मिलना-जुलना जातियों की दूरी कम होना बताता है। इस दिशा में मुख्य रूप से अकबर के 'दीन-ए-इलाही' का उल्लेख किया जाता है, जिस पर सूफ़ी उदारता की छाया भी है। अकबर ने अपने साम्राज्य को चारों दिशाओं में फैलाने के साथ, धार्मिक उदारता की दिशा में भी सोचा। तुलना में कठिनाई हो सकती है, पर कलिंग युद्ध के अनंतर अशोक महान् बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुआ था। कहा जाता है कि शेख मुबारक और उसके बेटे फैज़ी तथा अबुल फज़ल के विचारों का भी उस पर प्रभाव था। ज़बरन धर्म-परिवर्तन के विरोध में अकबर के आदेश, 1563 में तीर्थ-कर
और 1564 में धर्म-कर ज़ज़िया की समाप्ति उसके उदारवादी कदम थे। आगरा के निकट फ़तेहपुर सीकरी में उसने नया नगर बसाया जिसमें एक 'इबादतखाना' भी था, जहाँ सभी धर्मों के लिए प्रवेश के अवसर थे : हिंदू, बौद्ध, जैन और यहाँ तक कि ईसाई और यहूदी भी।
दीन-ए-इलाही अथवा सुलहकुल एक प्रकार से सर्वधर्म समभाव अथवा समन्वय का प्रयत्न कहा जा सकता है। जिन विद्वानों ने दीन-ए-इलाही पर मुख्य रूप से कार्य किया है, उनका विचार है कि अकबर को केवल कूटनीतिज्ञ कहना, उसके साथ न्याय करना नहीं होगा। फतेहपुर सीकरी को वह दीन-ए-इलाही के केंद्र रूप में विकसित करना चाहता था, जहाँ से धार्मिक सहिष्णुता की लहर पूरे देश में फैले। ध्यान देने की बात यह भी है कि मध्यकाल में उल्मा प्रभावी थे और शिया-सुन्नी टकराहट भी थी। ऐसी स्थिति में दीन-ए-इलाही एक समन्वय पंथ अथवा मध्यमार्ग की तलाश भी है। एक ओर आगरे का लाल किला है, शाही वैभव का प्रतीक, दूसरी ओर शेख सलीम चिश्ती के प्रति कृतज्ञता भाव व्यक्त करने के लिए सूफियाना अंदाज़ की नगरी फ़तेहपुर सीकरी है। फर्गुसन का विचार है कि विलास के स्थान पर इसमें सलीम चिश्ती के संतत्व की छाया अधिक है। पहले आगरा में फिर फ़तेहपुर सीकरी में धर्म के उदार पंथ को लेकर जो विचार-विनिमय हुए, उसी का रूप है, 1582 में दीन-ए-इलाही की घोषणा। डॉ. माखनलाल रायचौधरी ने उस पर सूफी प्रभाव का उल्लेख किया है (दीन-ए-इलाही, पृ. 116)। आइने अकबरी के अनुसार उसके कुछ प्रमुख बिंदु थे : उदारता, परोपकार, क्षमा, विनम्रता, शुभ कार्य, जाग्रत विवेक, मधुर वाणी, सद्व्यवहार, ईश्वर के प्रति राग-भाव और समर्पण। इसमें एक उदार सदाशयता का भाव है और उच्चतर आध्यात्मिक मानव-मूल्यों की ओर प्रयाण का प्रयत्न । एक प्रकार से यह मध्यकालीन धार्मिक सौमनस्य का राजकीय प्रयास है। पर टुकड़ों में बँटे वृहत्तर
40 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन