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समाजदर्शन की रूपरेखा, पृ. 2)। समाजदर्शन नीतिशास्त्र का अंश हो सकता है, पर उसमें सामाजिक संगठन पर विशेष बल है। समाजदर्शन में दर्शन शब्द की व्यंजना यह भी है कि समाज और मनुष्य को केंद्रीयता देते हुए, वह उन पर विचार करता है। अन्य ज्ञानानुशासनों से संबद्ध होने के कारण, उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया। पहले नीतिशास्त्र और फिर समाजशास्त्र के अंतर्गत उसे विवेचित किया गया। समाजदर्शन सामाजिक संगठन के भीतर मनुष्य की केंद्रीय उपस्थिति स्वीकारते हुए, अपना ध्यान उसी के विवेचन-विश्लेषण की ओर लगाता है। सामाजिक मनोविज्ञान अथवा सोशल साइकॉलॉजी से भी एक सीमा तक सहायता मिलती है। पर मानव-मन का विश्लेषण, सामाजिक पीठिका पर किए जाने का आग्रह समाजदर्शन करता है और असामान्य मनोविज्ञान से पृथक्ता स्थापित करता है।
सामाजिक परिवर्तन इतिहास की अनिवार्य प्रक्रिया है और समाजदर्शन उसे जानता-समझता है। सभ्यता-संस्कृति की विकास-यात्रा उसके लिए महत्त्वपूर्ण होती है। धर्म, नीति, अध्यात्म से लेकर आधुनिक युग तक का इतिवृत्त उसके समक्ष होता है। जीवन की सुविधाओं पर आधारित सभ्यता से लेकर वह संस्कृति के बौद्धिक व्यापार तक को अपनी परिधि में लेता है और इस प्रकार रचना के विवेचन में उसकी भूमिका असंदिग्ध हो जाती है। इतिहास केवल घटनाचक्र, विवरण-वृत्तांत नहीं है, उसके भीतर सभ्यता-संस्कृति की अंतर्धारा प्रवाहित रहती है जौ बौद्धिक क्रिया-व्यापार तथा कला-जगत् की समीपी है। समाजदर्शन स्वयं को इस सांस्कृतिक प्रक्रिया से संबद्ध करता है। आर्नाल्ड जे. ट्वायनबी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'ए स्टडी ऑफ़ हिस्ट्री' का आरंभ सभ्यताओं के तुलनात्मक अध्ययन से किया है और भारतीय समाज पर विचार करते हुए लिखा है : 'इस समाज (हिंदू) का सार्वभौम राज्य गुप्त साम्राज्य है (375-475), सार्वभौम धर्म हिंदू धर्म है जो गुप्तकाल में चरम शक्ति को पहुँच गया' (आर्नाल्ड ट्वायनबी : इतिहास, एक अध्ययन, खंड 1, पृ. 16)। पुस्तक सभ्यताओं को केंद्रीयता देती है : उत्पत्ति, विकास, विनाश, विघटन से लेकर सभ्यता के भविष्य तक।
इतिहास, समाज, सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक संस्थाएँ आदि रचना की पीठिका में उपस्थित रहते हैं, पर अपनी पृथक् सत्ता खोकर, समग्र रचना-संसार में विलयित हो जाते हैं। उनका प्रभाव निश्चित ही निर्णायक होता है, पर इन्हें पार कर सकने की क्षमता भी रचना को अर्जित करनी होती है। इसी अर्थ में कहा गया कि महान् रचना अपने समय में उपस्थित है, इस रूप में कि उसमें वह कालखंड समाया हुआ है। पर रचना का एक कालजयी स्वर भी होता है और यहाँ वह अपने समय को अतिक्रांत कर, अधिक लंबी यात्रा का संकल्प रचाती है। वह समय में भी है और उसके पार भी है। यहाँ समाजदर्शन शब्द बहुत स्पष्ट न होकर भी, कहीं अधिक सहायक हो सकता है। आरंभ से ही रचनाशीलता के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया
26 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन