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में उसे प्रमाणित करती है। नैतिकताएँ बदलेंगी ही, पर ऐसी नहीं कि मनुष्यता के विलोम का ही संकट उपस्थित हो जाय। मनुष्य इसलिए मनुष्य है क्योंकि उसका एक मल्य संसार है-विवेक-संपन्न, संवेदन-परिचालित। रचना के संदर्भ में जिस समाजदर्शन की बात की जाती है, वहाँ उच्चतर मानव-मूल्यों का यह संसार प्रमुखता प्राप्त करता है। एक ओर है समय की वास्तविकता, अपने सुख-दुख के साथ, दूसरी ओर है, इसे पार कर उच्चतर मानवमूल्यों के जगत् में प्रवेश करने की मनुष्य की अदम्य जिजीविषा। रचना इसे व्यक्त करने का एक समर्थ माध्यम है। सारे संकटों के बीच मनुष्य मनुष्य कैसे बना रह सके, अपने जाग्रत् विवेक तथा उदार संवेदन के साथ, यह समस्त विचारणा और रचनाशीलता की केंद्रीय चिंता होनी चाहिए। समाजदर्शन का उपयोग इसी अर्थ में करना अधिक प्रासंगिक है-यथार्थ से टकराहट, उसी के भीतर से मूल्य-मार्ग का संधान करते हुए।
मनुष्य श्रेष्ठतम जीव है, इस अर्थ में कि वह अधिक विवेक-संपन्न है और सर्जन कर सकता है। वह सामाजीकृत होता है और उसे सहचर होने की कला आती है। परिवार-कुटुंब से आगे बढ़कर, वह विश्वभूमि तक को अपनी चिंतन-परिधि में लाता है। प्रकृति के साथ उसकी भूमिका दुहरी-तिहरी है। उससे मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, पर उसी से उसकी टकराहट भी है। रचना में प्रकृति, प्रारब्ध, नियति, भाग्य, आकस्मिकता, संयोग, दैवी विधान, अलौकिक शक्ति आदि कई शब्द हैं, जिनका उपयोग मध्यकाल तक विशेष रूप से होता रहा है। आधुनिक समय में इस संबंध में पुनर्विचार हुआ और इन्हें सामाजिक स्थितियों के संदर्भ में देखा गया। पर आकस्मिकता का प्रश्न अपनी जगह मौजूद है, जिसे लोकविश्वास-लोकाचार आदि के संदर्भ में रखकर देखने का प्रयत्न भी किया जाता है। समाजदर्शन, रचना के प्रसंग में केवल अभिजन, शिष्ट समाज से संबद्ध नहीं है, उसमें लोक-मानस की प्रभावी भूमिका है। लोक उपादान भी रचना में उस संस्कृति के वाहक हैं, जिसकी चिंता में उच्चतर मूल्य-संसार होता है। इस दृष्टि से समाजदर्शन, संस्कृति का समीपी शब्द है, जहाँ समय-समाज का यथार्थ उपस्थित है, संवेदन-धरातल पर, साथ ही इसे अतिक्रमित करने का सर्जनात्मक संकल्प भी है, रचना के अपने समाजदर्शन को ध्वनित करता हुआ। मुक्तिबोध की कविता 'मालव-निर्झर की झर-झर कंचन-रेखा' में यही प्रतिज्ञा है : ‘पार कर मुश्किले' सभी/जादुई अरुण कमल/उस दूर देश के रश्मिविकिरणशील सरोवर का/तुम ला देना/एकाग्र प्रयत्नों का वह कोमल अमृत पिला देना संतापग्रस्त जीवन की दुर्निवार औषधि लानी होगी/यों मर-मरकर जिंदगी यहाँ पानी होगी।
कविता और समाजदर्शन / 29