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मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति
मध्यकालीन भारतीय इतिहास को लेकर विद्वान् आपस में टकराते रहे हैं। बाहर से जातियाँ आईं और अपने आंशिक प्रभाव छोड़ती हुई, मुख्य धारा में विलयित हो गयीं । पर मध्यकाल में जब इस्लाम ने आक्रामक रूप में प्रवेश किया, तो कई कठिनाइयाँ उपस्थित हुईं। जिसे हिंदू समाज कहा जाने लगा, वह प्रायः एक से अधिक देवताओं का पूजक था, बहुदेववादी । जैन-बौद्ध दर्शन के ईश्वर - आत्मा में संशय के बावजूद हिंदू आस्तिकता प्रबल थी। कई जातियों-उपजातियों में बँटकर भी, वह देववाद के सहारे जुड़ा था । इस्लाम पैगंबर को ईश्वर - दूत रूप स्वीकारता है और 'एक ही खुदा के बंदे' कहकर अनुयायियों को एकजुट रखने का प्रयास करता है । यद्यपि विद्वानों ने इसे रेखांकित किया है कि भारतीय प्राचीन जाति-उपजातिवादी ढाँचे ने इस्लाम को भी बिरादरियों में बाँटने का प्रयत्न किया। सबसे अधिक टकराहट मूर्तिपूजन को लेकर थी, जिसे इस्लाम में कोई स्वीकृति नहीं थी । इस प्रकार दो विपरीत दृष्टियों की टकराहट आरंभिक मध्यकाल में विद्यमान है । पर इसे रेखांकित करना आवश्यक है कि इस्लाम यहीं बस गया और खलीफा का स्थान स्वयं शासकों ने ले लिया, तब संवाद एक अनिवार्य प्रक्रिया है इसे नकारना इतिहास - दृष्टि की अनेदखी करना होगा और मैंने 'भक्तिकाव्य की भूमिका' पुस्तक में इसकी विस्तृत चर्चा की है : 'आरंभ का अलगाव धीरे-धीरे टूटता है और अकबर ( शासन : 1560-1605) जैसे उदार शासक के समय में सांस्कृतिक संवाद पूर्णता पर पहुँचता है' (पृ.61 ) ।
इतिहासकारों का विचार है कि उत्तर में हर्षवर्धन ( शासन : 606-647) और दक्षिण में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ( शासन : 609-642) प्राचीन भारत के अंतिम महान् शासकों में थे, इस दृष्टि से कि उन्होंने अपने राज्य को संगठित किया । पर बाद में बिखराव की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है और कई राजवंश सक्रिय होते हैं : चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल, चंदेल, प्रतिहार, पाल आदि । राजनीतिक अस्थिरता के समय में भारत बाह्य आक्रमणों को झेलने के लिए विवश था, और प्रतिरोध के लिए कोई
30 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन