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संगठित शक्ति न थी । मुहम्मद बिन कासिम ने 711 में सिंध पर आक्रमण किया । इसके बाद 1001 ई. से महमूद गजनवी से आक्रमण - श्रृंखला आरंभ हुई जिसने लगभग सत्रह बार देश को लूटा । 1192 के तराइन युद्ध में मुहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान की पराजय से इस्लामी शासन की स्थापना हुई और कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया ( 1193 ) । इतिहास की दृष्टि से दूसरी निर्णायक तिथि 1526 का पानीपत युद्ध है जब बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित कर मुग़ल राजवंश (बादशाही) की स्थापना की । तराइन युद्ध ( 1192) और पानीपत युद्ध ( 1526) के बीच सल्तनत काल कहा गया, जिसमें कई राजवंश हैं : तथाकथित दास, खल्जी, तुगलक, सैयद, लोदी। इस बीच मंगोलों के कई आक्रमण हुए । इस्लामी शासन का दूसरा दौर पानीपत युद्ध में बाबर की विजय के साथ आरंभ होता हैं : बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब । भारत में इस्लाम प्रवेश पर एम. एन. राय की टिप्पणी है कि उच्च वर्ग भ्रष्ट था और सामान्यजन निराश (इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका, पृ. 8 ) ।
मध्यकालीन भारतीय समाज को सामंती समय कहा गया है, पर विद्वान् इस शब्द का उपयोग करते हुए कहते हैं कि भारत के उत्पादन-संबंध किंचित् भिन्न रहे हैं। नूरुल हसन का विचार है कि 'मुग़ल व्यवस्था अपने चरित्र में सामंती और प्राक्-पूँजीवादी थी' (थॉट्स ऑन एग्रेरियन रिलेशंस इन मुग़ल इंडिया, पृ. 3 ) । इरफ़ान हबीब ने अपनी पुस्तक 'द एग्रेरियन सिस्टम ऑफ़ मुग़ल इंडिया' में इस पर विस्तार से विचार किया है । रामशरण जोशी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारतीय सामंतवाद'
गुप्त-काल (320 ई. से गुप्त संवत् का आरंभ ) को सामंती समाज के रूप में प्रतिपादित किया है : 'गुप्त काल से सम्मंडलों और जिलों के अधिकारियों के पद उत्तरोत्तर वंशानुगत होते चले गए । फलतः एक ओर केंद्रीय सत्ता की जड़ खोखली होती गई और दूसरी ओर प्रशासन का स्वरूप और भी सामंतवादी होता चला गया' (पृ. 25 ) । सामंती समाज मूलतः कृषि-व्यवस्था पर आधारित है, यद्यपि विभिन्न समाजों में इसके रूप भिन्न-भिन्न रहे हैं। कृषि आधारित व्यवस्था एक प्रकार से स्वयंसंपूर्ण है, जिसका विशेष उल्लेख मार्क्स ने भारतीय संदर्भ में किया है । मध्यकाल में भूमि का मुख्य स्वामी सिद्धांततः केंद्रीय शासक है जो अपनी सुविधा के लिए छोटे सामंतों की नियुक्ति करता है, जिनका दायित्व शासक को एक निश्चित राशि देना है और युद्ध के लिए सेना जुटाने का कार्य भी इन्हें करना है । जब केंद्रीय शासन व्यवस्था नहीं थी, जैसे विखंडित भारत में प्रतिहार, पाल, सेन, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल आदि, तब भी शासक के अधीनस्थ सामंती अधिकारी थे, जो शासन के सहायक थे और भूमिदान इसी का एक अंग है ।
मध्यकालीन भारत में क्रमशः केंद्रीय व्यवस्था सुदृढ़ होती गई और सामंती ढाँचे का, उसी की आवश्यकताओं के अनुरूप ढलना अनिवार्य था । इतिहास के दबावों
मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति / 31