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जाता रहा है कि आखिर उसका गन्तव्य क्या है ? वह कहाँ पहुँचना चाहती है। यह प्रश्न तो बाद में उठेगा कि वह किसे संबोधित करना चाहती है। स्वांतःसुखाय ऐकांतिक यात्रा नहीं है, उसमें समाज-समय उपस्थित हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा। बल्कि यह 'स्व' जितना ही विराट होगा, समय की उपस्थिति उतनी ही व्यापक होगी। प्लेटो बुद्धि-तर्क को सर्वोपरि स्वीकारता हुआ, 'विवेक' पर बल देता है। काव्यशास्त्र रचते हुए अरस्तू ने अनुभव किया कि विवेक के खंडित होने पर त्रासदी होती है। विचारों का इतिहास सभ्यता-संस्कृति के साथ-साथ अग्रसर हुआ, पर कई बार समय के प्रति अपनी असहमति दर्ज कराता हुआ। इस दृष्टि से समाजदर्शन की दो प्रमुख दिशाएँ कही जा सकती हैं, एक बिंदु पर समय-समाज की अंतर्धाराओं का विवेचन
और रचना पर उसके प्रभाव की पहचान। पर दूसरे बिंदु पर रचना की एक सांस्कृतिक भूमिका भी है, जिसे उदात्त अथवा उन्नयन का प्रयत्न कहा गया। मार्क्सवादियों के लिए यह एक सामाजिक अस्त्र है। रेमंड विलियम्स संस्कृति के समाजशास्त्र में कला
और बौद्धिक क्रियाएँ लेता है (कल्चर, पृ. 13)। समाजदर्शन रचनाकार का अपना अर्जित सत्य भी है, जिसे वह जीवनानुभव से प्राप्त करता है। रचना का यह समाजदर्शन कई बार प्रतिपक्ष, असहमति का कार्य करता है। 'रूसो ने मनुष्य की मुक्ति की कल्पना से स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व को प्रतिपादित किया, जिसने समग्र दर्शन और रचनाशीलता को प्रभावित किया। यहाँ तक कि समाजवाद-साम्यवादी आंदोलनों में भी उसकी भूमिका है' (शोभाशंकर : आधुनिक भारतीय समाजवादी चिंतन, पृ. 10)।
एक शिथिल शब्द-पद के रूप में समाज-चिंतन का उपयोग होता रहा है, जिसमें समाज और दर्शन का संयोजन है। एक ओर समय-समाज के तथ्य हैं, दूसरी ओर रचनाकार की अपनी प्रतिक्रियाओं से उपजा विचार-क्षेत्र है, जिसे कई बार विकल्प भी कहा गया, चाहे वह 'यूटोपिया' अथवा कल्पित दिवास्वप्न ही क्यों न हो। पर यदि 'विज़न' अथवा दृष्टि की कोई कारगर भूमिका नहीं होगी तो रचना का उन्नयन वाला पक्ष नितांत दुर्बल हो जाएगा। लूकाच 'परिप्रेक्ष्य' पर बल देता है (निर्मला जैन (सं.) : साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन, पृ. 45)। रचना दस्तावेज़ भर नहीं है, वह उसके पार जा सकने का उपक्रम भी है। साधारण रचनाएँ सूचनाएँ देकर चुक जाती हैं, पर महान् रचना अपनी अंतर्दृष्टि में तथ्यों के आर-पार देख लेती है, जिसे पारदर्शी दृष्टि भी कहा गया। समाज की कई इकाइयाँ होती हैं, व्यक्ति, परिवार से लेकर सामाजिक संस्थाओं तक, जिनमें राज्य भी है। इनके भीतर मनुष्य का जीवन-प्रवाह संचरित होता है, पर जहाँ तक रचना का संबंध है, उसमें प्रकृति की भी उल्लेखनीय उपस्थिति है, जिसमें मनुष्य, प्राणी, अन्य जीवधारी भी आ जाते हैं। इस दृष्टि से समाजदर्शन का क्षेत्र सीमित होकर भी अधिक मानवीय प्रतीत होता है, इस अर्थ में कि उसकी चिंताओं में मानव-मूल्यों को प्रमुखता मिलती है। धर्म, दर्शन से लेकर राजनीति तक के सामने कई बार तात्कालिक प्रश्न हो सकते हैं, पर इन्हें भेदकर
कविता और समाजदर्शन / 27