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मक्तिबोध ने कविता के संदर्भ में ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान शब्दों का प्रयोग किया है जो पुराने भाव-विचार का अधिक सचेत स्वरूप है। परमानन्द श्रीवास्तव ने कविता में यथार्थ के लिए संघर्ष की बात करते हुए, उसके रूपों का उल्लेख किया है, जिसे कवियों की भिन्नताओं में देखा जा सकता है। मुक्तिबोध को विशेष स्थान देते हुए उन्होंने लिखा है : 'मुक्तिबोध के कविकर्म की जटिलता अकारण नहीं है-उसके पीछे यथार्थ की कठोर विसंगतियों की चेतना है और वस्तु-परिस्थिति का जटिल दबाव है। यथार्थ और फैंटेसी के जिस अंतर्गठन से मुक्तिबोध की कविताएँ संभव हुई हैं, उसके पीछे विराट कल्पना, वैचारिक साहस, उग्र असंतोष और तनावमूलक दृष्टि है' (परमानन्द श्रीवास्तव : समकालीन कविता का यथार्थ, पृ. 19)।
साहित्य का समाजशास्त्र व्यापक आशय का शब्द है, जबकि समाजदर्शन सीमित भी हो सकता है। दोनों में पार्थक्य की खोज की कुछ कठिनाइयाँ भी हो सकती हैं। दर्शन शब्द की व्याख्या को लेकर भी मतभेद हैं और उसकी कई शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं। दर्शन को जीवन से संबद्ध करके मार्क्स ने उसे नई प्रयोजनशीलता दी। शीर्षासन की मुद्रा में विचरते दर्शन को उन्होंने पैरों के बल खड़ा किया, जीवन-जगत् को वस्तुवादी आधार दिया। मार्क्स ने दर्शन की क्रांतिकारी भूमिका का पथ भी निश्चित किया कि दार्शनिकों ने अभी तक जगत् की व्याख्या ही की है, हमारा काम उसे बदल देना है। ऐसी परिवर्तित स्थिति में अनुमान, कल्पना, बौद्धिक विलास आदि के स्थान पर दर्शन जीवन से अधिक गहरे रूप में संबद्ध करके देखा जाता है। संभवतः समाजदर्शन इसी सोच-विचार को ध्वनित करता है। संशय को मार्क्सवादी ढंग से, भारतीय दर्शन का प्रस्थान-बिंदु मानते हुए, मृणालकांति गंगोपाध्याय गौतम का उल्लेख करते हैं (भारत में दर्शनशास्त्र, पृ. 16)। दर्शन की एक अनवरत प्रक्रिया भारत में रही है, कभी निषेध पर स्थित और कभी व्याख्या-विवेचन से नए संदर्भ तलाशती हुई। पश्चिम में दर्शनशास्त्र व्याख्या-विवेचन से संबद्ध है, जिसमें तर्क की प्रमुख भूमिका है। आधुनिक समय में जब समाजशास्त्रीय अध्ययन की दिशा तीव्र गति से अग्रसर हुई तो दर्शन, विचारधारा, ज्ञान, साहित्य, कला जगत् को इस संदर्भ में देखा गया। रेमलिंग द्वारा संपादित पुस्तक 'टुवर्ड्स द सोशियालॉजी ऑफ नॉलेज' में विद्वानों ने कुछ प्रश्नों पर विचार किया है।
मैकडूगल ने 'सोशल फिलासफी' पुस्तक लिखी और इसी शीर्षक से जे. एस. मेकेंजी की पुस्तक बीसवीं शताब्दी के आरंभ में आई। उन्होंने समाज अथवा सामाजिक दर्शन को समाजशास्त्र से एक पृथक विषय के रूप में स्वीकार किया। समाजदर्शन की सीमाएँ स्वीकार करते हुए वे मानते हैं कि समाजशास्त्र अधिक व्यापक शब्द है। विज्ञान से दर्शन की स्वतंत्र स्थिति स्वीकारते हुए वे कहते हैं कि 'यह विशेष रूप से जीवन के मूल्यों, उद्देश्यों तथा आदर्शों का अध्ययन है' (जे. एस. मेकेंजी :
कविता और समाजदर्शन / 25