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का विरोध करते हुए, टी. एस. इलियट ने जब कविता को व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के स्थान पर, उससे पलायन के रूप में देखा, तब उसका आशय यही था कि 'स्व' से मुक्ति रचना की उठान के लिए आवश्यक है। उत्पत्तिमूलक संरचनावाद का सिद्धांत गढ़ते हुए, गोल्डमान (लूकाच से प्रेरणा लेकर) स्वीकार करता है कि प्रतिबिंबन समाज के बाहर से नहीं, भीतर से होता है। उसके विवेचन में लूकाच की 'त्रासद चेतना' (ट्रैजिक कॉन्शसनेस अथवा ट्रैजिक विज़न) की छाया है (ल्यूसिएँ गोल्डमान : द हिडेन गॉड, पृ. 145)। केवल तथ्य-वस्तु के आधार पर कविता का विकास संभव नहीं। जिसे नाटक के संदर्भ में अरस्तू ने जीवन की पुनर्रचना कहा और जो अनेक प्रकार से कई बार दुहराई गई विवेचना है, उसमें सामाजिक दर्शन का प्रवेश होता है।
समय-समाज की प्रभावी उपस्थिति है और कविता उनसे पलायन नहीं करती, पर वह पूर्ण अनुमोदन भी नहीं है। ऐसी भी स्थितियाँ हो सकती हैं जब मूल्य-मर्यादाएँ इस सीमा तक टूट जाएँ कि दर्शन, विचार, मूल्य की चर्चा का अवसर भी न हो। तब प्रश्न होगा कि इस समय-समाज का कोई समाजदर्शन है क्या ? और यदि है तो उसका स्वरूप क्या है ? रामायण-महाभारत दो मूल्य-मर्यादाओं का संकेत करते हैं। एक में तप-त्याग की भूमिका है : राजीव-लोचन राम चले, तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं। दूसरी ओर संघर्ष ही ज़मीन के टुकड़े को लेकर है। दोनों सामाजिक स्थितियाँ बदले समय-संदर्भ की सूचना देती हैं। पूरे कथा-विन्यास पर विचार करें तो त्रेता-द्वापर समय-यथार्थ के प्रतीक हैं। कवि अपनी दृष्टि से इस वस्तुपरक तथ्य को देखता-समझता है। स्थितियों के बदलने पर समाजदर्शन अथवा समाज की विचारधारा में जो परिवर्तन दिखाई देते हैं, उनकी पहचान का काम अंतर्दृष्टि की माँग करता है। इसीलिए विद्वानों ने स्वीकार किया कि समाजशास्त्र की तथ्यात्मक, विवरणपरक सीमाओं का अतिक्रमण कर ही, महान् रचना प्रस्तुत की जा सकती है। रूमानी तौर पर कवियों ने जिस अभीप्सित कल्पना-लोक को रचा, उसमें यथार्थ के संस्पर्श दुर्बल थे। इसीलिए यथार्थ और वास्तविकता के दबाव रूमानी कविता झेल नहीं पाई। पर जिसे समाजदर्शन अथवा सोशल फिलासफी कहा गया, उसमें समाज में अंतःप्रवेश का प्रयत्न भी है।
समाजदर्शन का एक पक्ष वह जहाँ समय-समाज की स्थिति के साथ, उसकी विचारधारा को भी देखा-परखा जाय और इसके लिए विवेक-संपन्न आलोचना-दृष्टि की आवश्यकता है। मॉल्कम ब्रेडबरी का विचार है कि रचना में श्रेष्ठतर मूल्य जीवित रहते हैं (नामवर सिंह : आलोचना, अप्रैल-जून, 1973, पृ. 9)। रचना वस्तुओं का यथातथ्य विवरण नहीं है, वह एक प्रकार की टकराहट भी है, जिसे मुठभेड़ कहा गया, इस अर्थ में कि सजग-सचेत लेखक, उसके विश्लेषण में संवेदन के साथ, तार्किक क्षमता का उपयोग भी करते हैं। कविता का यह तर्कशास्त्र खंडन-मंडन की पद्धति से किंचित् भिन्न होता है क्योंकि यहाँ जाग्रत संवेदन की उल्लेखनीय उपस्थिति है।
24 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन