________________
रचना का सौंदर्यशास्त्र भी होता है जिसे समग्र कलाकृति कहा गया । ल्यूसिएँ गोल्डमान का निबंध 'द सोशियालॉजी ऑफ लिटरेचर : स्टेटस एंड प्राब्लम्स ऑफ़ मेथड', इंटरनेशनल सोशल साइंस जर्नल में 1967 में प्रकाशित हुआ था जिसमें उत्पत्तिमूलक संरचनावाद की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए विश्व दृष्टि, समग्रता का आग्रह किया गया। साहित्य के समाजशास्त्र को, उदारपंथियों द्वारा व्यापक दृष्टि दी गई और आगे चलकर उसमें सौंदर्यशास्त्र का भी प्रवेश हुआ।
1
समाजदर्शन को इस दृष्टि से समाजशास्त्र का आगामी चरण भी कहा जा सकता है कि यहाँ रचनाकार की अपनी जीवनदृष्टि अधिक मुखर हो सकती है । प्रतिबद्धता प्रश्न को लेकर भी मार्क्सवादियों के शिविर हैं - कट्टरपंथी, उदारपंथी । एक विचलनभटकाव (डेविएशन) आदि का विरोध करते हुए लाल पुस्तक को प्रमाण मानता है । नागार्जुन ने अपनी कविता 'पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने' में इसका संकेत किया है : पछाड़ दिया आज मेरे आस्तिक ने मेरे नास्तिक को / साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान पोस्टग्रेजुएट मेरे इस 'डेविएशन' का । उदारपंथी कुत्सित समाजशास्त्र ( वल्गर ) पर तीखी टिप्पणी करते हैं । ऐसी स्थिति में समाजदर्शन एक अधिक व्यापक आशय का शब्द हो सकता है, विशेषतया रचना-विचार के संदर्भ में । यहाँ समाजशास्त्र की सूचनाओं, आँकड़ों, सांख्यिकी, विवरण, तथ्य, अधिसंरचना (सुपर स्ट्रक्चर) आदि का संपूर्ण आग्रह नहीं है । स्वयं में दर्शन को अंतर्निहित किए हुए, समाजदर्शन अगले चरण का संकेत करता है, समाजशास्त्र कार्य-कारण- संबंधों की खोज करता है और तथ्यों की तर्कसंगत व्याख्या से सिद्धांत प्रतिपादित होते हैं । साहित्य के समाज की प्रतिच्छाया रूप में देखने की प्रक्रिया, आज सही नहीं है । यहीं साहित्य का समाजदर्शन अधिक प्रासंगिक शब्द प्रतीत होता है। सचाई यह है कि जो समय-समाज अपने लिए उपयुक्त दर्शन- विचार नहीं तलाश पाते, उनके समक्ष कई प्रकार के प्रश्न चिह्न लग जाते हैं, प्रगति अवरुद्ध हो जाती है I
1
साहित्य और कलाओं की निर्मिति में समाज की भूमिका निर्णायक है पर माओ जैसा क्रांतिकारी, जो स्वयं कवि था, स्वीकार करता है कि उसमें मानव मस्तिष्क की भूमिका भी होती है जिससे यथार्थ चित्रित होता है । इसीलिए कोई भी यथार्थ अनेक रूपों में उजागर होता है । 'महामारी के देवता को विदाई' माओ की एक कविता है जिसमें प्रकृति का सक्षम उपयोग है : अगणित हरे जलस्रोत, नीले पर्वत, वासंती बयार, सरपत वन : ग्राम सैकड़ों फँसे, घिरे खरपतवारों में / मानव-प्राण न जाने कितने
विसर्जित / उजड़ गए घर-द्वार सहस्रों की गणना में / करते प्रेत- प्रलाप यहाँ शोकाग्नि समर्पित (कविताएँ, पृ. 41 ) । कविता में जिजीविषा, आस्था के स्वर प्रमाणित करते हैं कि क्रांतिकारी कवि का समाजदर्शन भी है । निराला की अंतिम कविताओं में आस्था कर स्वर है : पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है / आशा का प्रदीप जलता है, हृदय कुंज में (सांध्य - काकली) । कवि स्वयं को भीष्म पितामह की शर- शय्या की स्थिति
22 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन