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में समाजशास्त्र की पहचान और भी कठिन हो जाती है। इस संदर्भ में प्रायः कविता की आंतरिकता अथवा निजता की बात की जाती है। पर विश्व का सर्वोत्तम काव्य प्रमाण है कि निजता की सार्वभौमता और कलाकृति के रूप में उसकी अन्विति अनिवार्य गुण हैं। - हमने अपने विवेचन के लिए समाजदर्शन अथवा 'सोशल फिलासफी' शब्द का प्रयोग किया है। प्रायः समाजशास्त्र और समाजदर्शन को एक-दूसरे के इतना समीपी मान लिया गया कि दोनों में पार्थक्य की आवश्यकता का अनुभव भी पर्याप्त विलंब से किया गया। समाजदर्शन को समाजशास्त्र में ही अंतर्भुक्त मान लिया गया। पर समाजशास्त्र के विवेचन में भी पर्याप्त विस्तार हुआ है और वह समाज, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि तक सीमित नहीं है। जी. डी. रेमलिंग ‘सोशियालॉजी ऑफ नॉलेज' पुस्तक का संपादन करते हुए ज्ञान को धर्म, दर्शन से लेकर आधुनिक समय के विज्ञान तक से संबद्ध करके देखते हैं। उसमें कार्ल मानहाइम जैसे विद्वान् सम्मिलित हैं जिनकी पुस्तक 'एसेज़ ऑन द सोशियालॉजी ऑफ नॉलेज' 1952 में लंदन से प्रकाशित हुई थी। प्रश्न है कि सामाजिक अस्तित्व तथा ज्ञान में क्या संबंध है और साहित्य की स्थिति कहाँ है (सोशियालॉजी ऑफ नॉलेज, प्राक्कथन, पृ. 7)। पिटिरिम ए सारोकिन की पुस्तक 'सोशल फ़िलासफीज ऑफ़ एन एज ऑफ क्राइसिस' में भारतीय संस्कृति के आत्म-दर्शन का उल्लेख किया गया है, जिसका सफल प्रतीक निर्वाण है (सारोकिन : संक्रांति युग के समाजदर्शन, पृ. 104)। रचना का सामाजिक-आर्थिक आधार मूल प्रस्थान हो सकता है, पर वह उसका अंत नहीं है। साहित्य संस्कृति भी रचता है जिसे हम रचना का समाजदर्शन कह सकते हैं। प्रो. दयाकृष्ण की पुस्तक 'सोशल फिलासफी : पास्ट एंड प्रेजेंट' में स्वतंत्रता को एक मूल्य के रूप में स्वीकारा गया है और उसे संस्कृति का प्रमुख उपादान माना गया है (पृ. 78)। इस दृष्टि से रचना एक मूल्य-संस्कृति है। सारोकिन 'सोशल एंड कल्चरल डायनेमिक्स' के प्रथम खंड 'फाउंडेशंस ऑफ़ फ़ार्स ऑफ़ आर्ट' में विचार व्यक्त करते हैं कि कलाएँ सांस्कृतिक उत्थान-पतन के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण माध्यम हैं। इस प्रकार साहित्य के समाजशास्त्र के साथ समाजदर्शन पर भी विचार होता रहा है।
साहित्य-समाज के अंतःसंबंध समाजशास्त्र-समाजदर्शन दोनों के विषय कहे जा सकते हैं। फिर अंतर कहाँ है ? समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं और संबंधों का विश्लेषण करते हुए, जब साहित्य की ओर आता है, तब इस बिंदु पर भी विचार किया जाता है कि तथ्य रचना में किस रूप में प्रविष्ट हुए हैं। पर रचना की प्रक्रिया इतनी यांत्रिक नहीं है कि आँकड़ों-सूचनाओं में सिमट जाय। साहित्य को वर्ग के प्रतिबिंब रूप में स्वीकारने वाले प्लेखानोव, ए. के. लूनाचर्की से लेकर जॉर्ज लूकाच तक साहित्य में वर्ग की स्थिति स्वीकारते हैं। विचारणीय यह कि साहित्य समाज का बिंब मात्र नहीं, वह उसे अतिक्रांत भी करता है। और समाजशास्त्र के साथ,
कविता और समाजदर्शन / 21