Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 15
________________ करते हैं (द थियोरी ऑफ़ द नावेल, पृ. 70 ) । उपन्यास जैसे प्राचीन महाकाव्य का स्थानापन्न है और वे बाल्ज़ाक, ताल्स्ताय को प्रस्तुत करते हैं । ल्यूसिएँ गोल्डमान की पुस्तक 'टुवर्ड्स द सोशियालॉजी ऑफ नावेल' का अंग्रेजी संस्करण 1975 में आया । उपन्यास का समाजशास्त्र विवेचित करते हुए उन्होंने उसे एक महाकाव्यात्मक विधा माना और कहा कि एक अध:पतित संसार में यह प्रामाणिक मूल्यों की खोज का प्रयत्न भी है । गोल्डमान लूकाच का उल्लेख कई बार करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उपन्यास को केंद्र में रखकर साहित्य का समाजशास्त्र गढ़ते हुए लेखक कविता के दबाव से पूर्ण मुक्त नहीं है। हेगेल, मार्क्स आदि में भी इसे देखा जा सकता है। ऐलन स्विंगवुड का विचार है कि गोल्डमान में लूकाच के उपन्यास - सिद्धांत का जो समाजशास्त्रीय विकास हुआ, उसमें तेन, प्लेखानोव आदि भी हैं। हिंदी में भी यह टिप्पणी की गई कि कविता के सिद्धांत नए कथा - साहित्य पर आरोपित किए जाते I प्रश्न यह कि साहित्य का समाजशास्त्र क्या केवल गद्य, विशेषतया उपन्यास तक सीमित किया जा सकता है। संभवतः नहीं। डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने गोल्डमान की स्थापनाओं पर विचार करते हुए 'गोदान' के साथ 'कामायनी' और 'राम की शक्तिपूजा' को भी सम्मिलित किया है। उनका विचार है कि 'विषय और अंतर्वस्तु के स्तर पर तीनों अलग-अलग हैं। लेकिन तीनों में विश्वदृष्टि के स्तर पर चेतना की संरचना के स्तर पर समानता है । तीनों में पराजय और निराशा की प्रधानता है । यद्यपि राम की शक्तिपूजा के अंत में आशा की एक किरण है लेकिन पूरी रचना में व्याप्त अंधकार और निराशा के आगे वह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं लगती। तीनों में संघर्ष, पराजय और निराशा के माध्यम से जो विश्वदृष्टि उभरती है, वही पाठकों को प्रभावित करती है' (साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, पृ. 150 ) । कविता का समाजशास्त्र बनाने के प्रयत्न विरल हुए हैं और मूल नामकरण 'साहित्य का समाजशास्त्र' है, पर मूलतः उसके केंद्र में कथा - साहित्य है । हमारे विषय के संदर्भ में यह प्रश्न प्रासंगिक है कि कविता का समाजशास्त्र रचने की कठिनाइयाँ क्या हैं ? अपनी पुस्तक 'नई कविता की भूमिका' के आरंभ में मैंने कविता के समाजशास्त्र का प्रश्न उठाया है । जीवन - यथार्थ के दबाव साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन के केंद्र में हैं और माना गया कि आधुनिक कथा - साहित्य में उसकी व्यापक उपस्थित है । पर क्या यह संभव है कि प्राचीनतम माध्यम - काव्य अपने समय-समाज से पूर्णतया असम्पृक्त रह जाय ? माना कि सृजनात्मक कल्पना की भूमिका कविता में पर्याप्त होती है, पर यथार्थ को पुनःसर्जित करने का यह रचनात्मक प्रयास है । मेरा विचार है कि 'साहित्य जब जीवन - यथार्थ को स्वीकारता है तो उसमें कल्पनात्मक अंतर्दृष्टि और सर्जनात्मक प्रतिभा को संयोजित करके उसे एक नया रूपाकार देने का प्रयत्न करता है' (प्रेमशंकर : नयी कविता की भूमिका, पृ. 6 ) । कविता की संश्लिष्ट, सूक्ष्म प्रक्रिया I 20 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन

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