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कि वर्ग विशेष का सामाजिक जीवन और विचार कला में प्रतिबिंबित होते हैं, पर उनकी प्रक्रिया यांत्रिक नहीं होती' (मार्क्स-एंगेल्स : ऑन लिटरेचर एंड आर्ट, प्राक्कथन, पृ. 3)। साहित्य के समाजशास्त्र पर विचार करने के लिए उनके पास इतना समय न था कि वे पूरी व्याप्ति में जाकर, सूक्ष्मता से विवेचन कर सकें। पर दर्शन-विचार के रूप में जो आधारभूत सूत्र इन प्रतिबद्ध विचारकों ने दिए हैं, उन्हें साहित्य के समाजशास्त्र का आरंभिक प्रस्थान माना जाता है। विचारणीय यह कि समर्थक तथा विरोधी दोनों इनसे टकराते रहे हैं और यथार्थवाद-संबंधी चिंतन में इसे विशेष रूप से देखा जा सकता है। लेनिन के प्रसिद्ध लेख 'पार्टी संगठन और पार्टी साहित्य' (1905) का उल्लेख प्रायः किया जाता है कि 'सामाजिक-जनवादी साहित्य को पार्टी-साहित्य होना चाहिए। 'सर्वहारा संस्कृति' की चर्चा करते हुए वे लूनाचर्की का विरोध करते हैं (लेनिन : संस्कृति और सांस्कृतिक क्रांति, पृ. 123)।
यह विचारणीय कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद और साहित्य का समाजशास्त्र अथवा समाजदर्शन एक ही आशय ध्वनित नहीं करते। कट्टर मार्क्सवादियों ने तो आरोप लगाया कि समाजशास्त्र पश्चिमी पूँजीवाद के बुर्जुआ विचारों से निःसृत है, जहाँ सांख्यिकी प्रधान है। इसके विपरीत मार्क्सवादी धारणा क्रांतिकारी है जिसमें साहित्य में सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा भी सन्निहित है। लियोन ट्रॉटस्की (साहित्य और क्रांति), जी. वी. प्लेखानोव (कला और सामाजिक जीवन), ए. वी. लूनाचर्की आदि ने साहित्य चिंतन को मार्क्सवादी आधार पर विकसित किया। पर साहित्य के समाजशास्त्र के आधुनिक विकास में उनकी भूमिका आंशिक ही स्वीकारी जा सकती है। कारण कई हैं, जिनमें प्रमुख यह कि मार्क्सवाद स्वयं संपूर्ण समाजशास्त्र का दावेदार नहीं है, जैसा प्रयत्न निकोलाई बुखारिन ने किया था : ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद : लोकप्रिय समाजशास्त्र की एक पाठ्यपुस्तक' (1921), जिसे सामान्यीकरण माना गया।
समाजशास्त्र और साहित्य को लेकर एक से अधिक विचारक-वर्ग आमने-सामने हैं। मार्क्सवाद को समाजशास्त्र बनाने के प्रयत्न का विरोध तो स्वयं मार्क्सवादियों ने भी किया है, ए. ग्राम्शी अथवा जार्ज लूकाच ने। संभवतः मार्क्सवादी कट्टरता से जो रूढ़ियाँ बनीं, विशेषतया स्तालिन-युग में, उसके प्रति एक असहमति का भाव जन्मा। साहित्य में रुचि रखने वाले विद्वानों ने इसे 'कुत्सित समाजशास्त्र' के रूप में देखा और रचना की यांत्रिक प्रक्रिया का विरोध किया। वस्तुगत अध्ययन की अवधारणा अपने रूप में सही है, पर रचनाकार उसे नया रूपाकार भी देता है। ऐलन स्विंगवुड स्वीकारते हैं कि जहाँ तक कथ्य का प्रश्न है साहित्य और समाजशास्त्र दोनों में समानताएँ हैं। लक्ष्य की समानताओं में भी किसी सीमा तक बहुत दूरी नहीं है। पर स्वयं स्विंगवुड यह स्वीकार करते हैं कि समाज की समझ में साहित्य और समाजशास्त्र एक-दूसरे के पूरक होकर भी रचना प्रक्रिया और प्रवृत्ति में भिन्न हैं (द सोशियालॉजी ऑफ लिटरेचर, पृ. 95)। समाज के अनेक अनुशासन धर्म, दर्शन,
18 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन