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विशेष की जलवायु, भौगोलिक स्थिति, सामाजिक संस्थाओं की समानताएँ हैं, जिनसे साहित्य प्रभावित होता है। साहित्य के समाजशास्त्र के संदर्भ में मदाम द स्ताल के कुछ विचार इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं कि उनसे आगामी चिंतन विकसित हुआ। उन्होंने मध्यवर्ग के उदय को साहित्य में महत्त्व दिया, जो औद्योगिक समाज के साथ नई भूमिकाओं में सक्रिय हुआ। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से निरंकुश सामंती शासन का पतन हुआ, मानवाधिकारों की घोषणा हुई-स्वाधीनता, समानता, बंधुत्व और स्ताल के चिंतन पर उसका प्रभाव स्वाभाविक है। मध्यवर्ग की विशेष स्थिति स्वीकार करते हए उन्होंने उपन्यास को प्रभावी रचना-माध्यम माना। अरसे तक साहित्य कविता, नाटक केंद्रित रहा है और इन्हीं को साहित्य-विवेचन में प्रधानता मिली। मदाम द स्ताल ने मध्यवर्ग और उपन्यास को जो महत्त्व दिया उसे साहित्य के आगामी समाजशास्त्रीय चिंतन में प्रमुखता मिली, जैसे जॉर्ज लुकाच आदि में । इस प्रकार सामाजिक संस्थाओं से साहित्य के संबंध पर विचार से ने साहित्य के समाजशास्त्र का आरंभ हुआ।
साहित्य का समाजशास्त्र शब्द निर्मित करने का श्रेय आग्युस्त कोंत (1798-1857) को दिया जाता है, पर इसे वैचारिक विकास देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका ईमालीत अडोल्फ तेन (1828-93) की है। तेन कई दिशाओं के विचारक थे और 'अंग्रेजी साहित्य का इतिहास' उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। वे इस दृष्टि से विवादास्पद रहे हैं कि आगे चलकर विभिन्न शिविरों में उन्हें संपूर्ण स्वीकृति नहीं मिली, पर कला
और साहित्य के विषय में उनके विचार समाजशास्त्रीय दृष्टि से संपन्न हैं। तेन के समय में जो वस्तुपरक, सत्यान्वेषी वैज्ञानिक दृष्टि प्रभावी हो रही थी, उसने उनके चिंतन को रूपायित करने में सहायता की। 'कला का दर्शन' में तेन साहित्य और कला को सामाजिक तथ्य के रूप में देखते हैं और विभिन्न ज्ञानानुशासनों के समन्वित प्रभाव को रचना में स्वीकृति देते हैं। उनका चिंतन धर्म-दर्शन के एकाधिपत्य से आगे बढ़कर, प्रकृति-विज्ञान तक को स्वीकारता है। तेन एक प्रकार से साहित्य की भाववादी अवधारणा को तोड़ते हैं और उसे बौद्धिक आधार देते हैं। साहित्य का मुख्य प्रस्थान है, वह समय-समाज जो उसकी मूल प्रेरणा है। कला और साहित्य को ‘सामाजिक उत्पादन' मानते हुए, वे उस तथ्य की पड़ताल का आग्रह करते हैं, जिसे कथ्य रूप में व्यक्त किया जाता है। साहित्य के समाजशास्त्र का उनका बहुचर्चित सिद्धांत प्रजाति, परिवेश तथा युगचेतना से निर्मित है, जिससे रचना का समग्र रूप बनता है। यद्यपि यह भी सही है कि इन तीनों में संगति स्थापित करने में तेन ने कठिनाई का अनुभव किया। उन्होंने साहित्य में मनुष्य की उपस्थिति स्वीकार करते हुए लेखक के व्यक्तित्व को भी महत्त्व दिया, क्योंकि उसका अपना वैशिष्ट्य है जो रचना में सक्रिय होता है, सर्जनात्मक स्तर पर। विद्वानों ने साहित्य के समाजशास्त्र में तेन के इस महत्त्व को स्वीकारा है कि साहित्य को सामाजिक दस्तावेज़ के रूप में देखने में वे अग्रणी
16 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन