Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan Author(s): Premshankar Publisher: Premshankar View full book textPage 9
________________ समय-समाज में हस्तक्षप करती है और कैसे वह लंबा समय पार कर, हम तक पहुँचती है। इस दृष्टि से भक्तिकाव्य मुझे चुनौती देता है, नई पहचान के लिए आमंत्रित करता है। संयोगवश विश्वविद्यालय अनुदान आयोग परियोजना ने मुझे अवसर दिया कि मैं अपने विचारों को मूर्त रूप दे सकूँ और इस सहायता के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा। आभार आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी के प्रति जिनकी सदाशयता मुझे निरंतर मिलती आई है और मैं सक्रिय संस्कृत विभाग से संबद्ध होकर अपना कार्य निश्चिंतता से कर सका। 'गुरुजी' श्री त्रिलोचन शास्त्री को सादर प्रणाम निवेदित है, जिनका सागर-प्रवास हम सबके लिए प्रेरणाप्रद है। कृतज्ञता-भाव उन सबके प्रति जिनका स्नेह मुझे सहज सुलभ रहा है और जिसके प्रतिदान की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं है। मेरे अनेक शुभेच्छु हैं-गुरुजन, इष्टजन से लेकर शिष्य-मित्रों तक-सबका स्मरण करता हूँ। सत्संग से कुछ पा सका, यही मेरी पँजी है पर मैं अपनी सीमाओं से भी परिचित हूँ। 'धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी' मेरे जीवन-पाथेय रहे हैं, इन्हीं के सहारे इतनी यात्रा कर सका। स्वीकार करना चाहूँगा कि संगिनी शोभा के सहयोग से ही कुछ कर पाना संभव हो सका। विल्सन जॉन मेरे अक्षरों को आकार देते हैं, उन्हें धन्यवाद। विनम्र विचार है कि भक्तिकाव्य को खुली दृष्टि से देखने पर उसका जीवंत स्वर आज भी प्रासंगिक है। निराला के तुलसीदास का संकल्प हर समय में रचना की सार्थकता का प्रमाण है : 'करना होगा यह तिमिर पार, देखना सत्य का मिहिर द्वार।' विश्वविद्यालय परिसर, सागर स्वतंत्रता दिवस 1999 प्रेमशंकर 14 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शनPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 229