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में प्रस्तुत करते हुए भी, जीवन के प्रति आश्वस्त है। यह आश्वस्ति भाव रचना में समाजदर्शन का एक प्रमुख उपादान है।
रचना इस अर्थ में एक कलाकृति के साथ, दर्शन, विचार, मूल्यसंसार, संपूर्ण संस्कृति भी है कि वह अपने समय-समाज में अंतःप्रवेश की क्षमता रखती है । यथार्थ ऊपर-ऊपर नहीं तैरता, उसके आवरण होते हैं, जिन्हें भेदकर, रचनाकार को भीतर प्रवेश करना होता है । यह उसकी प्रतिभा क्षमता, संवेदन - सामर्थ्य पर निर्भर कि वह कितने गहरे प्रवेश कर सकता है। जहाँ तक कविता का प्रश्न है, वह भावाश्रित होकर भी, भावालाप नहीं है, उसका एक बौद्धिक - वैचारिक संसार होता है । पहले इसे दर्शन कहा गया और इसे विभिन्न दार्शनिक निकायों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता था । वैचारिक जगत् में प्रवेश करते हुए, इसे विचारधारा से संबद्ध करके देखा गया । मुक्तिबोध ने रचनाकार के मानवतावाद (मानववाद ) का प्रासंगिक प्रश्न उठाते हुए कहा है, 'लेखक के अंतःकरण में जो भाव-तत्त्व हैं, जो जीवन ज्ञान- व्यवस्था है, और उस व्यवस्था के अंतर्गत जो दृष्टि है, उनसे परिचालित और परिपुष्ट जो संवेदनात्मक उद्देश्य है, उनसे कलाभिव्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति के लिए अपेक्षा रखती है, उन पर निर्भर करती है अपने रूप तत्त्व के विकास के लिए' (मुक्तिबोध : नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 20)। इस प्रकार मुक्तिबोध समाजशास्त्र से आगे बढ़कर, समाजदर्शन की परिकल्पना करते हैं और वस्तु रूप ( कन्टेण्ट- फ़ॉर्म) का द्वैत पाटते हुए, उसमें एक संयोजन का प्रयत्न करते हैं। इसे वे रचना का आत्मसंघर्ष कहकर संबोधित करते हुए काव्य को एक सांस्कृतिक प्रक्रिया कहते हैं, 'काव्यरचना केवल व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं, वह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है । और, फिर भी वह एक आत्मिक प्रयास है। उसमें जो सांस्कृतिक मूल्य परिलक्षित होते हैं, वे व्यक्ति की अपनी देन नहीं, समाज की या वर्ग की देन हैं' (मुक्तिबोध : नयी कविता का आत्मसंघर्ष, पृ. 19)।
रचना को केवल दर्पण अथवा दस्तावेज़ मान लेने से कई कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं । प्रश्न यह भी कि क्या रचनाकार इस सीमा तक यांत्रिक हो सकता है कि समाज के प्रति उसकी जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं, उनकी कोई भूमिका ही न हो । चित्रकला, मूर्तिकला आदि में इसे विशेष रूप से देखा-समझा जा सकता है । वहाँ दृष्टि के साथ उस 'कोण' की भी भूमिका है, जिससे दृश्य देखा गया है और उसी के अनुसार चित्र निर्मित हुआ है। मोनालिसा अथवा द लास्ट सपर जैसी चित्र - मूर्ति कृतियों में यह विचारणीय है । कविता, जिसे शब्द की सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति से संबद्ध कर देखा-परखा गया, वहाँ यह कठिनाई भी कि वर्णन - विवरण की सुविधा एक सीमा तक ही होती है। प्रतिभावान कवि को स्वविवेक का आश्रय लेना पड़ता है जो अनुभव के साथ उसकी जीवन दृष्टि, मूल्य - चिंता आदि से भी संबद्ध है । कविता की ही क्यों, किसी भी रचना की वस्तुनिष्ठता के बावजूद, उसकी निरपेक्ष स्थिति को इस सीमा तक नहीं स्वीकारा जा सकता कि रचनाकार पूर्णतया अनुपस्थिति हो जाय । रोमांटिसिज्म
कविता और समाजदर्शन / 23