Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan
Author(s): Premshankar
Publisher: Premshankar

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Page 10
________________ कविता और समाजदर्शन साहित्य और समाज के संबंधों की चर्चा किसी न किसी रूप में पर्याप्त समय से होती रही है, पर जीवन की बढ़ती जटिलताओं के साथ, इस विषय पर अधिक गंभीरता से विचार करने का अनुभव किया गया। प्राचीन काल में जब कविता, नाटक प्रमुख विधाएँ थीं, तब उनके रचयिता को विशिष्ट प्रतिभा संपन्न, यहाँ तक कि अपौरुषेय अथवा दैवी प्रतिभा का व्यक्ति माना गया । साहित्य-रचना में उस समय धर्म, नीति, दर्शन आदि के दबाव प्रमुख रूप से कार्य करते दिखाई देते हैं । महाकाव्य तथा नाटक में नियति, प्रारब्ध आदि के दैवी विधान हैं जिनसे कथावस्तु संचालित होती है । समय-समाज जिस तीव्र गति से परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहे थे, उसमें अवधारणाओं पर पुनर्विचार स्वाभाविक था । रचना में समाज की उपस्थिति का प्रश्न सत्रहवीं शताब्दी में भी उठा था, जैसे जेम्स राइट ने नाटकों के संबंध में इसकी चर्चा की। पर अठारहवीं शती में साहित्य-समाज के अंतस्संबंधों पर विचार की प्रक्रिया को नई गति मिली। यह आग्रह किया गया कि साहित्य और कलाओं के मूल आशय तक पहुँचने के लिए सामाजिक परिवेश का परिज्ञान भी अपेक्षित है । ऐलन स्विंगवुड ने 'सोशियालॉजी ऑफ लिटरेचर' में साहित्य के समाजशास्त्र के विकास की चर्चा की है। विको की न्यू साइंस (1725 ) में वे इसका पूर्वाभास देखते हैं और जे. सी. हर्डर (1744-1803) तथा मदाम दस्ताल (1766-1817 ) से इसका विधिवत् आरंभ मानते हैं, जहाँ इस विषय को तार्किक आधार मिला । साहित्य का समाजशास्त्र एक आधुनिक विषय है, और यह प्रश्न भी विचारणीय कि समाजशास्त्र और साहित्य का क्या संबंध है ? साहित्य के समाजशास्त्र की अवधारणा का स्वरूप क्या है ? और फिर यह कि समाजशास्त्र के साथ समाजदर्शन की कोई स्थिति हो सकती है क्या ? यदि है तो उसकी पार्थक्य रेखाएँ क्या होंगी । साहित्य के समाजशास्त्र की चर्चा आधुनिक समय में व्यापक रूप से होती है, इसलिए सर्वप्रथम उस पर विचार करना उपादेय होगा । हर्डर और मदाम द स्ताल में देश 1 कविता और समाजदर्शन / 15

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