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प्रकाशक की ओर से दो शब्द।
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यह वात निर्विवाद है कि प्राकृत भाषा भारत वर्ष की प्रधान भाषा है और इसमें समय समय पर अनेकानेक धार्मिक और साहित्य विषयक महत्वपूर्ण प्रन्थ लिखे गये हैं, जो कि वाज भी भारतवर्ष के उज्वल प्रादर्श और उच्च विचारों को प्रकाशित कर रहे हैं। प्राचीन तत्ववेत्तामों और अन्वेषण-कर्ताओं ने इस भाषा के उतमोत्तम ग्रन्थों को उपलब्ध किया है और इसके गुप्त महत्व पर मुग्ध होकर इसके गुणों को विशेष परिश्रम से अधिकाधिक प्रकट किया है। यहां तक कि इस भाषा के जो अमूल्य ग्रन्ध अबतक गुप्त थे श्राज अपनी जागृत ज्योति से देश देशान्तरों को देदीप्यमान कर रहे हैं और प्राचीन भारत की विशेषत: जैन साहित्य की उज्वल कमनीय कीर्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण दे रहे हैं। ग्रन्थों की उपलब्धि के साथ साथ विद्वानों की रुचिपूर्ण साहित्य की गवेषणा और इसके बढ़ते हुए महत्व को देखकर केवल भारतवाय ही नहीं वरन् प्राच्य और पाश्रास्य समस्त प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने अपनी उच्च शिक्षा प्रणाली में किसी न किसी रूप में इस भाषा के रूप रूपान्तरों को योग्य स्थान प्रदान कर इसको यथावत् सम्मानित किया है । पुनः माधुनिक भारतवर्षीय आर्य-भाषाओं (हिन्दी, गुजराती, बंगला, मराठी भादि ) का इस भाषा के किसी न किसी रूप से प्रादुर्भाव और निकट सम्बन्ध, तथा इन भाषाओं के सम्यक ज्ञान के लिये इस भाषा की उपयोगिता भादि अनेक महत्वपूर्ण बातों को यथावत् समझने के लिये इस भाषा के छहत कोष की परम आवश्यकता प्रतीत हुई ।
किसी भाषा का ज्ञान कोष और व्याकरण के बिना सुलभ नहीं हो सकता । प्राप्य ग्रन्थों में अभीतक आधुनिक शिष्ट प्रणाली के अनुसार अर्धमागधी का कोई कोष उपस्थित नहीं है।
अर्ध-मागधी भाषा इसी प्राकृत भाषा की प्रधान एवं महत्वपूर्ण शाखा है, जिसमें सर्वज्ञ भगवान तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी ने जैन धर्म का उपदेश किया है। यह बात विद्वानों को ज्ञात ही है कि प्राकृत भाषा का साहित्य बहुत विस्तृत है और इसकी एक एक शाखा तथा प्रशाखा पर इस कोष के सरश अनेक कोष निर्माण करने की बड़ी आवश्यकता है, जो कि विद्वानों के अविश्रान्त परिश्रम, साहित्य सामग्री की उपस्थिति तथा राजा महाराजा धनी मानी सजनों के उत्साह पूर्ण सहानुभूति बिना सुलभ नहीं है। मुझे भाशा है कि इस सम्बन्ध में गुणी और विज्ञ सजन अवश्यमेव दत्तचित्त और सच्चेष्ट होकर भारत के प्राचीन साहित्य को प्रत्यत्त और सुलभ करेंगे। भारत की समस्त आर्य-भाषाभों के बहुतसे अज्ञात शब्दों की व्युत्पत्ति पर इसी भाषा की शाखा प्रशाखाओं के द्वारा पूर्ण प्रकाश डाला जा सकता है । इतिहासकारों को तथा प्राचीन तत्व-संशोधों को इन्ही सब कारणों से इस भाषा का ज्ञान सम्पारन करना अब पावश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य होगया है, और भाषा का ऐसा ज्ञान सम्पादन करने के लिये एवं उप से उब तत्वों से परिपूर्ण साहित्य को पढ़ने के लिये कोष ही एक महान् साधन हो सकता है। कोष के अभाव में अर्थ के स्थान में अनर्थ भादि होजाते हैं जिस कारण साहित्य को बड़ी हानि
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