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उपरिल्ल. : ( उपरितन ) प्रादि २ किन्तु ऐसे शब्दों के पूर्व यह * चिन्ह नहीं दिया उसका कारण यह है कि ये शब्द खास अर्ध-मागधी भाषा के ही हैं और इनके लिये संस्कृत के निर्दिष्ट रूप ही प्रचलित तथा प्रसिद्ध हैं। वर्णभेद होते हुए भी केवम श्रवणमात्र से ही उनके संस्कृत रूपों का बोध हो जाता है। इस कारण ऐसे शब्दों के पूर्व यह * चिन्ह नहीं दिया। वैसे ही ऐसे शब्दों के रूपान्तर साहित्य में किसी जगह देखने में नहीं पाये।
(.) मूल शब्द के आगे जो जाति दी गई है वह अर्ध-मागधी शब्दों की ही है न कि उनके संस्कृत-पर्यायों की । प्रायः मूल शब्द और संस्कृत प्रतिशब्दों की जाति अधिकांश मिलती जुलती ही है तथापि खासकर वह जाति मूल शब्दों की ही है। जिस शब्द को जो जाति सूत्र में मानी गई है अर्थात् सूत्रकारों ने जिस शब्द को जिस जाति में प्रयुक्त किया है उस शब्द की वही जाति यहां भी दी गई है जैसे:-अक्खुद्द. पुं० (अक्षुद्र) गंभीर श्रावक । यह शब्द पुलिङ्ग माना गया है, किन्तु संस्कृत में क्षुद्र अथवा अशुद्र दोनों विशेषण माने गये हैं, वास्ते यह तीनों लिङ्गों में प्रयुक्त होना चाहिये था किन्तु सूत्रों में यह शब्द केवत श्रावक के लिये ही पाया है और उसे पुलिङ्ग ही माना है वास्ते कोष में भी उसे पुलिङ्ग गतताया है । इसी प्रकार अंबिल. न० (अम्ला) एक प्रकार की वनस्पति । संस्कृत में यह शब्द तीलिंग माना है किन्तु सूत्रों में इस शब्द को नपुंसक लिङ्ग में ही प्रयुक्त किया है वास्ते यहां भी उसे नपुंसक लिग में ही रक्खा है।
(८) शब्दों का अनुक्रम वर्णमाला के अनुसार-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ, अं, और बाद में व्यञ्जन-क, ख, ग, वगैरह इस प्रकार रक्खा है।
(E) संस्कृत भाषा में जिस प्रकार अनुस्वार को परसवर्ण-वर्ग के अन्त्यावर के रूप में परिवर्तन कर स्थानान्तर-अनुनासिक + अक्षर के बाद रक्खा जाता है, वैसा अर्ध-मागधी भाषा में नहीं होता । इस भाषा में अनुस्वार को अनुस्वार के ही रूप में रक्खा जाता है अतः उसकी गणना अनुस्वार ही में की गई है, इस कारण इस कोष में अनुस्वार को व्यञ्जन के पूर्व ही रक्खा है, जैसे-अश्रो के बाद अंक और उसके पश्चात् अकड प्रादि ।
( १. ) सम्बन्धार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त, और वर्तमान कृदन्त इनमें जिसका धातु नहीं मिला वह अलग दिया है और जिसका धातु उपलब्ध है, उसे धातु के साथ ही रक्खा है। तीनों प्रकार के कृदन्त जहां स्वतन्त्र (धातु के अतिरिक्त) दिये हैं, वहां उन्हें भव्यय कर दिया है, कारण कि सूग्रकारों ने भी ऐसी हालत में प्रायः इनको भव्यय ही माना है । जैसे:- अकियाणं.
'ल' प्रत्यय अर्धमागधी में प्रसिद्ध होने के कारण यह * चिन्ह नहीं दिया। इसकी संस्कृत छाया 'तर, तम, तन' है।
+ अनुस्वार के बाद जब 'क' से 'म' तक कोई भी अक्षर आता है तब अनुस्वार को परसवर्ण अर्थात् कवर्ग का कोई अक्षर हो तो 'कू' और चवर्ग का कोई वर्ण हो तो ञ् आदि आदि होजाता है । इसीसे संस्कृतमें अनुस्वार सबसे प्रथम न रखकर अन्त में दिया जाता है। वहीं अनुस्वार प्रथम माता हैं जिसके अन्त्य वर्ण य र ल व श ष स ह होते हैं।
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