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इन सजनों के अतिरिक्त मुनि श्री रूपचन्द्रजी स्वामी, मुनि श्री शिवलालजी तथा वारीलाय छोटालाल (लीवड़ी), धोराजी कन्याशाला के अध्यापक श्रीयुत कालिदास दामजीने भी जो यथाशक्ति मदद दी है उसके लिये मैं प्रापका आभारी हूं।
साहित्य सम्बन्ध में मेरे पूज्य पिताजी को कितनी निर्मल और उप्र रुचि है इसका साची स्वयं यह कोष प्रकाशनका कार्य है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्रकाशक के यह दो शब्द यदि स्वयं मेरे पूज्य पिताजी की लेखनी से लिखे जाते तो कहीं अधिक उपयुक्त और रुचिकर होते, परन्तु इस कोष की हस्तलिखित प्रति संपूर्ण पूरी होने के पूर्व ही “श्रेयांस बहुविघ्नानि" इस नियम के अनुसार मेरे पूज्य पिताजी को गहन मानसिक व्याधि ने श्रा घेरा और उन्हें यह कार्य इसी ही दशा में विवश हो छोड़ना पड़ा। श्रीमान् पिताजी की आज्ञानुसार यह अवशिष्ट कार्य करना
रा परम धर्म हुआ । यद्यपि मेरी शक्ति और बुद्धि इतनी नहीं है कि मैं इस उत्तम ग्रन्थ को विज्ञ सजनों की सेवा में उपस्थित कर सकू, तथापि पूण्य पिताजी के अनुग्रह अौर विद्वानों की सुदृष्टि के आधार पर मैं इस कोष को विद्वत्समाज की सेवा में सादर समर्पण करता हूं और यह विनती करता हूं कि मेरे अल्पज्ञान के कारण संशोधनकार्य में यदि त्रुटियां रह गई हों तो उदार पाठक वृन्द “ हंसक्षीरन्यायेन " शुद्ध बातों को ग्रहण करेंगे और मेरी प्रज्ञानता के लिये हमा प्रदान करेंगे, तथा द्वितीय संस्करण के हेतु रचना पति अनुवाद, छपाई भादि सम्बन्धी त्रुटियों की सूचना मुझे देनेका परम अनुग्रह प्रकट करेंगे । अंग्रेजी अनुवाद सम्बन्धी कठिनाइयों का सार अनुवादक महोदय की बचनावली से प्रकट होगा।
अंत में शतावधानी मुनिवर श्री रत्नबन्द्रजी महाराज को पुनः अनेकानेक धन्यवाद देना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूं क्योंकि उनके उत्साह, सहर्म-पालन और प्रनेक शास्त्र परिशीलन बिना यह प्रकाशन सर्वथा असंभव ही होता । श्री श्वे० स्था० जैन कान्फरन्स को धन्यवाद देना
और उसका गुणगान करना मेरा आवश्यक धर्म है, क्योंकि इस संस्था की सहायता और उत्साह वृद्धि के कारण इस उत्तम साहित्य सेवा का परम सौभाग्य मेरे पूज्य पिताजी को प्राप्त हुना।
राजबाड़ा चौक इन्दोर (मालवा).
विनीत सरदारमल भंडारी.
॥ इति शुभम् ॥
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