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डाखा । केवल तीन वर्ष की अवधि में ऐसे महान कार्य को सर्वाङ्ग सुन्दर और सम्पूर्ण करना स्वामीजी की विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता और कल्पनातीत परिश्रम का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
श्री स्वामीजी का संक्षिप्त जीवनचरित्र ।
जैन मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज के अविश्रान्त परिश्रम का फल यह कोष है। आपका जन्म संवत् १६३६ वैशाख शुक्ल १२ गुरुवार को कच्छ देश में मुंद्रा नगर के पास भारोरा नामक ग्राम में हुआ । पापकी मातेश्वरी का नाम लपमविाई और पिताजी का नाम वीरपाल शाह था। गुजराती भाषा की छः पुस्तकों का अध्ययन करने के अनन्तर आप अपने जेष्ठ बन्धु के साथ कुलक्रमागत प्रणाली के अनुसार वाणिज्य व्यापार में कुशलता प्राप्त करने के हेतु केवल बारहवें वर्ष ही में बम्बई, बेलापुर ( दक्षिण) सनावद (मालवा) आदि व्यापार स्थानों में भेजे गये, वहां आपने धान्यादि का व्यापार किया । आपका विवाह-संस्कार १३ वें वर्ष हुश्रा। गृहस्थाश्रम में तीन वर्ष भी व्यतीत न हो पाये थे कि श्रापकी सहधर्मिणी ने अपने स्मारक स्वरूप केवल एक कन्या को छोड़ इस असार संसार का सदैव के लिये परित्याग कर दिया, और इस प्रकार अपने वियोग से महाराज श्री के सहज परम गुण वैराग्य को परिपूर्ण करने में सहायता दी । महाराज श्री के हृदय में वैराग्य का पूर्ण प्रादुर्भाव तो था ही अपनी धर्मपत्नी के विछोह से प्रापको अपने इस उत्तम उत्पन्न सहज गुण की वृद्धि करने का अवसर प्राप्त होगया और असह्य शोक तथा क्षोभ के स्थान में वैराग्य-वासना ने अपना उतरोत्तर बढ़ता हुआ अधिकार जमाया और मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज को साधुत्व ग्रहण करने में सहायता दी । साधुत्व अङ्गीकार करने के पूर्व अापने कुछ समय साधुत्व सम्बन्धी आवश्यक तत्वों के ग्रहण करने में व्यतीत किया। दीक्षा स्वरूप महान् संकल्प ग्रहण करने में प्राप को विशेष आपत्ति न हुई । “प्रसादचिन्हामि पुरः फलानि " क्योंकि आपके पूज्य पिताजी तथा ज्येष्ठ भ्राता वाणिज्य व्यापार द्वारा आजीविका करते हुए भी ऐसे शुभ तथा महान् पुण्य कार्य में मनाही न करने का सत्य सङ्कल्प पहिले ही कर चुके थे। यह असाधारण सुविधा होने पर भी माता के अपार और अगाध प्रेम के कारण महाराज श्री को इस निमित्त श्राज्ञा तुरन्त न मिल सकी । इस प्रकार एक वर्ष पर्यन्त मापने सांसारिक मनुष्य की भांति जीवन व्यतीत करते हुए दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, थोकड़े इत्यादि का अध्ययन दत्तचित्त होकर किया और इसी अवधि में आपने अपने तीघ वैराग्य भावों का दृश्य इस प्रकार प्रत्यक्ष किया कि स्वयं, पूज्य माताजी ने उन्हें दीक्षा ग्रहण करने के लिये अनुमति प्रदान कर दी । इस प्रकार आपने संवत् १६५३ के जेष्ठ शुक्ल ३ के दिन पूज्यपाद श्री १००८ श्री गुलाबचन्द्रजी स्वामी (लींबदो संप्रदाय ) के समीप अपनी उमर के १७ वें वर्ष में परम पवित्र दीपा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् शीघ्र ही आपने संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया
और अल्प काल में ही सिद्धान्तचन्द्रिका, सिद्धान्तकौमुदी, तत्वबोधिनी, मनोरमा, पंचकाव्य, अनार, साहित्य, नाटक भादि का सम्यज्ञान उपार्जन कर लिया, और अनन्तर न्याय के तर्कसंग्रह से जगाकर जगदीश गदाधर के वाध-अनुमति ग्रन्थ तक अध्ययन भलीभांति किया। इसके पचाव सांख्यदर्शन, पाताखदर्शन प्रादि ग्रन्थों की शिक्षा कच्छ और काठियावाड़ के
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