Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[३६] तात्पर्य अर्थ"निरवशेष" है। बिना शब्द के हमारा व्यवहार नहीं चलता। किन्तु वक्ता के विवक्षित अर्थ को न समझने से कभी बड़ा अनर्थ भी हो जाता है। इसी अनर्थ के निवारण हेतु निक्षेप-विद्या का प्रयोग हुआ है। निक्षेप का अर्थ निरूपणपद्धति है। जो वास्तविक अर्थ को समझने में परम उपयोगी है।
आगम साहित्य में ज्ञानवाद की चर्चा विस्तार के साथ आई है। स्थानांग में भी ज्ञान के पाँच भेद प्रतिपादित हैं।११२ उन पाँच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष १३ इन दो भागों में विभक्त किया है। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना और केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीन प्रत्यक्ष हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान "परोक्ष" है। उसके दो प्रकार हैं—मति और श्रुत । स्वरूप की दृष्टि से सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट लक्षण किये गये हैं। बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिये दूसरे ज्ञान की जिसे अपेक्षा नहीं होती है उसे स्पष्ट ज्ञान कहते हैं। जिसे अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट है। परोक्ष प्रमाण में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता होती है। उदाहरण के रूप में स्मृतिज्ञान में धारणा की अपेक्षा रहती है। प्रत्यभिज्ञान में अनुभव और स्मृति की, तर्क में व्याप्ति की। अनुमान में हेतु की, तथा आगम में शब्द और संकेत की अपेक्षा रहती है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिसका ज्ञेय पदार्थ निर्णय-काल में छिपा रहता है वह ज्ञान अस्पष्ट या परोक्ष है। स्मृति का विषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं होता। प्रत्यभिज्ञान में वह अस्पष्ट होता है। तर्क में भी त्रिकालीन सर्वधूम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं होते। अनुमान का विषय भी सामने नहीं होता और आगम का विषय भी। अवग्रह-आदि आत्म-सापेक्ष न होने से परोक्ष हैं। लोक व्यवहार से अवग्रह आदि को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में रखा है।११४
स्थानाङ्ग में ज्ञान का वर्गीकरण इस प्रकार है१५ -
प्रत्यक्ष
परोक्ष
केवलज्ञान
नो-केवलज्ञान
अवधिज्ञान
मनःपर्यवज्ञान
भवप्रत्ययिक
क्षायोपशमिक
ऋजुमति
विपुलमति
आभिनिबोधिक
श्रुतज्ञान
श्रुतनिश्चित
अश्रुतनिश्चित
अर्थावग्रह
व्यंजनावग्रह
अर्थावग्रह
व्यञ्जनावग्रह
अंगप्रविष्ट
अंगबाह्य
आवश्यक
आवश्यक व्यतिरिक्त
कालिक उत्कालिक ११२. स्थानांगसूत्र, स्थान ५
११३. स्थानांगसूत्र, स्थान २, सूत्र ८६ ११४. देखिए जैन दर्शन, स्वरूप और विश्लेषण, पृ. ३२६ से ३७२ देवेन्द्र मुनि ११५. स्थानांगसूत्र, स्थान-२, सूत्र ८६ से १०६