Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[३४] शास्त्रकार ने "शल्य" कहा है। वह शल्य के समान सदा चुभती रहती है। माया से स्नेह-सम्बन्ध टूट जाते हैं। आलोचना करने के लिए शल्य-रहित होना आवश्यक है। प्रस्तुत स्थान में विस्तार से उस पर चिन्तन किया गया है। गणि-सम्पदा, प्रायश्चित्त के भेद, आयुर्वेद के प्रकार, कृष्णराजिपद, काकिणिरत्नपद, जम्बूद्वीप में पर्वत आदि विषयों पर चिन्तन है। जिनका ऐतिहासिक व भौगोलिक दृष्टि से महत्त्व है।
नवमें स्थान में नौ की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। ऐतिहासिक, ज्योतिष तथा अन्यान्य विषयों का सुन्दर निरूपण हुआ है। भगवान् महावीर युग के अनेक ऐतिहासिक प्रसंग इसमें आये हैं। भगवान् महावीर के तीर्थ में नौ व्यक्तियों ने तीर्थंकर नामकर्म का अनुबन्ध किया। उनके नाम इस प्रकार हैं-श्रेणिक, सुपार्श्व, उदायी, पोट्टिल अनगार, दृढ़ायु, शंख श्रावक, शतक श्रावक, सुलसा श्राविका, रेवती श्राविका। राजा बिम्बिसार श्रेणिक के सम्बन्ध में भी इसमें प्रचुर-सामग्री है। तीर्थंकर नामकर्म का बंध करने वालों में पोट्टिल का उल्लेख है। अनुत्तरौपपातिक सूत्र में भी पोट्टिल अनगार का वर्णन प्राप्त है। वहाँ पर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होने की बात लिखी है तो यहाँ पर भरतक्षेत्र से सिद्ध होने का उल्लेख है। इससे यह सिद्ध है कि पोट्टिल नाम के दो अनगार होने चाहिए। किन्तु ऐसा मानने पर नौ की संख्या का विरोध होगा। अत: यह चिन्तनीय है।
रोगात्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख हुआ है। इनमें आठ कारणों से शरीर के रोग उत्पन्न होते हैं और नवमें कारण से मानसिक-रोग समुत्पन्न होता है। आचार्य अभयदेव ने लिखा है कि अधिक बैठने या कठोर आसन पर बैठने से बवासीर आदि उत्पन्न होते हैं। अधिक खाने या थोड़ा-थोड़ा बार-बार खाते रहने से अजीर्ण आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोग का मूल कारण इन्द्रियार्थ-विगोपन अर्थात् काम-विकार है। काम-विकार से उन्माद आदि रोग उत्पन्न होते हैं। यहाँ तक कि व्यक्ति को वह रोग मृत्यु के द्वार तक पहुंचा देता है। वृत्तिकार ने काम-विकार के दश-दोषों का भी उल्लेख किया है। इन कारणों की तुलना सुश्रुत और चरक आदि रोगोत्पत्ति के कारणों से की जा सकती है। इनके अतिरिक्त उस युग की राज्यव्यवस्था के सम्बन्ध में भी इसमें अच्छी जानकारी है। पुरुषादानीय पार्श्व व भगवान् महावीर और श्रेणिक आदि के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण सामग्री भी मिलती है।
दशवें स्थान में दशविध संख्या को आधार बनाकर विविध-विषयों का संकलन हुआ है। इस स्थान में भी विषयों की विभिन्नता है। पूर्वस्थानों की अपेक्षा कुछ अधिक विषय का विस्तार हुआ है। लोक-स्थिति, शब्द के दश प्रकार, क्रोधोत्पत्ति के कारण, समाधि के कारण, प्रव्रज्या ग्रहण करने के कारण, आदि विविध विषयों पर विविध दृष्टियों से चिन्तन है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के अनेक कारण हो सकते हैं। यद्यपि आगमकार ने कोई उदाहरण नहीं दिया है, वृत्तिकार ने उदाहरणों का संकेत दिया है। बृहतकल्प भाष्य,०२ निशीथ भाष्य,०३ आवश्यक मलयगिरि वृत्ति में विस्तार से उस विषय को स्पष्ट किया गया है। वैयावृत्त्य संगठन का अटूट सूत्र है। वह शारीरिक और चैतसिक दोनों प्रकार की होती है। शारीरिक-अस्वस्थता को सहज में विनष्ट किया जा सकता है। जब कि मानसिक अस्वस्थता के लिये विशेष धृति और उपाय की अपेक्षा होती है। तत्त्वार्थ०५ और उसके व्याख्या-साहित्य में भी कुछ प्रकारान्तर से नामों का निर्देश हुआ है।
भारतीय संस्कृति में दान की विशिष्ट परम्परा रही है। दान अनेक कारणों से दिया जाता है। किसी में भय की भावना रहती है, तो किसी में कीर्ति की लालसा रहती है किसी में अनुकम्पा का सागर ठाठे मारता है। प्रस्तुत स्थान में दान के दशभेद निरूपित हैं। भगवान् महावीर ने छद्मस्थ-अवस्था में दश स्वप्न देखे थे। छउमत्थकालियाए अन्तिमराइयंसि इस पाठ से यह विचार बनते हैं। छद्मस्थ काल की अन्तिम रात्रि में भगवान् ने दश स्वप्न देखे। आवश्यकनियुक्ति०६ और आवश्यक
१०२. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा २८८० १०३. निशीथभाष्य, गाथा ३६५६ १०४. आवश्यक मलयगिरि, वृत्ति ५३३ १०५. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, द्वितीय भाग, पृ. ६२४ १०६. आवश्यकनियुक्ति २७५