Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-0-09 5. निह्नव = सूत्र, अर्थ एवं ज्ञान पढानेवाले गुरुजी का अपलाप करना, छुपाना... 6. आशातना = ज्ञान ज्ञानी एवं ज्ञान के साधन प्रति बेदरकार रहना, अपमान करना, अशुभ शोचना एवं उचित विनय न करना इत्यादि.... दर्शनावरणीय कर्म के बंधकारण 6 है, और वे ज्ञानावरणीय कर्म के बंधकारणों के समान हि है, किंतु मात्र वहां ज्ञान ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों की जगह... दर्शन, दर्शनी एवं दर्शन के साधनों के प्रति प्रत्यनीकता, अंतराय, उपघात, प्रद्वेष, निह्नव और आशातना करने से जीव दर्शनावरणीय कर्मबंध करता है... वेदनीय कर्म में साता वेदनीयकर्म के बंधकारण 6 है... 1. भूतानुकंपा = भूत याने प्राणी-जीव... दुःखी जीवों के प्रति करुणा दयाभाव... - 2. व्रत = पांच महाव्रत या 12 अणुव्रत का यथोचित आचरण... 3. . योग = मन वचन काया के शुभ योग... 4. क्षमा = अपराधी को माफ करना, क्षमा करना... 5. दान = अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओं का दान... 6. गुरुभक्ति = मात-पिता आदि वृद्ध गुरुजनों की सेवा-भक्ति... इत्यादि... असाता वेदनीय कर्म के बंधकारण भी 6 छह है... और वे साता वेदनीय के बंध के कारणों से विपरीत हैं... 1. जीवों को दुःख देना... 2. व्रत-नियम न होना... 3. मन वचन काया का अशुभ योग... 4. अपराधी को क्षमा न करना... रोष-द्वेष रखना... 5. अन्न, वस्त्र आदि का दान न देना... 6. मात-पिता आदि वृद्ध गुरुजनों की सेवा-भक्ति न करना... मोहनीय कर्म में दर्शन मोहनीय कर्म के बंधकारण आठ है 1. अरिहंत परमात्मा के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना... 2. . सिद्ध परमात्मा के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना.., 3. चैत्य-जिनालय के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना... 4. तपश्चर्या के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना... 5. श्रुतज्ञान के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना... गुरुजनों के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना...