Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 288 1 - 3 - 4 - 3 (138) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन छह महिने के पर्यायवाले सौधर्म एवं ईशान देवलोक के देवों को... सात महिने के पर्यायवाले सनत्कुमार एवं माहेंद्र देवलोक के देवों की तेजोलेश्या को... आठ महिने के पर्यायवाले ब्रह्मलोक एवं लांतक देवलोक के देवों की तेजोलेश्या को... नव महिने के पर्यायवाले श्रमण-निग्रंथ साधु म. महाशुक्र, सहस्रार, देवलोक के देवों को... दश महिने के पर्यायवाले आनत, प्राणत आरण एवं अच्युत देवलोक के देवों को... ग्यारह महिने के पर्यायवाले नव ग्रेयेयक के देवों को... और बारह महिने के पर्यायवाले श्रमण-निग्रंथ साधु म. अनुत्तर विमान के देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करतें हैं अर्थात् उन से बढकर के हैं... और बारह महिने के बाद शुक्ल और शुक्लाभिजात्य होते हुए अंत में सिद्ध बुद्ध मुक्त होते हैं... अनंतानुबंधी आदि के क्षय के लिये तत्पर साधु क्या एक कर्म के क्षय में हि प्रवृत्त होता है... सभी कर्मो के ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे.... V सूत्रसार : भय नामक नोकषाय कर्म मोह जन्य है। क्योंकि- वह भय-कर्म चारित्र मोहनीय कर्म की एक प्रकृति है। इसलिए असंयम जीवन में भय का उदय रहता है। इससे प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया हैं कि- प्रमादी व्यक्ति को सभी प्रकार के भय है अर्थात् जहां प्रमाद है वहीं सभी भय हैं। और जब आत्मा अप्रमत्त भाव में विचरण करती है. तब मनष्य को कोई भय नहीं रहता है। इसका कारण यह है कि- प्रमादी व्यक्ति की दृष्टि में भौतिक पदार्थों की मुख्यता है, अतः उनके नाश या वियोग की स्थिति उत्पन्न होते ही मन में भय एवं क्षुब्धता उत्पन्न हो जाता है। ____ परन्तु अप्रमत्त मुनि का चिन्तन आत्माभिमुखी होता है, शरीर एवं अन्य उपकरण साधन उसकी दृष्टि में केवल आत्म विकास के साधन मात्र हैं- इसलिए देह के विनाश का प्रसंग आने पर भी वह भयभीत नहीं होता। मरणांत कष्ट उपस्थित होने पर वह अप्रमत्त साधु अपने शरीर को धर्मध्यान के प्रसन्नभाव से त्याग देता है, अर्थात् पुरातन वस्त्र की तरह शरीर का परित्याग करता है। अत: संयमनिष्ठ अप्रमत्त साधु को किसी भी प्रकार का भय नहीं होता, वह सदा निर्भय होकर विचरता है। वह अभय मुनि स्वयं भयभीत नहि होता है और अन्य किसी भी जीवों को भयभीत नहि करता है... जहां भय रहता है, वहां मोह कर्म की अन्य प्रकृतियां भी रहती है। और वस्तुतः मोह कर्म ही सभी कर्मों का राजा है। मोह का नाश करने पर शेष कर्मों का नाश करना सरल हो जाता है। इसलिए कहा गया कि- जो व्यक्ति मोह कर्म की एक प्रकृति अनन्तानुबन्धी क्रोध का क्षय कर देता है, वह शेष प्रकृतियों को भी क्षय कर देता है और जो मोह कर्म की बहुत सी प्रकृतियों को क्षय करता है वह अनन्तानुबन्धी क्रोध का भी नाश करता है या