Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ - श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 1 - 4 (142) 313 दिन एवं रात मोक्षमार्ग में यतनावाले तथा परीषह एवं उपसर्गों से क्षोभ नहि पानेवाले धीर तथा सद् एवं असद् के विज्ञानवाले हे साधुजनो ! आप प्रमत्त याने असंयत ऐसे संसारी लोगों को एवं धर्म के सच्चे स्वरूप से बाहर रहे हुए कुमतवालों को देखो ! उनके प्रमादाचरण को देखकर, आप सदा अप्रमत्त याने निद्रा एवं विकथा आदि से दूर होकर एवं सदा-सर्वदा धर्मानुष्ठान के उपयोगवाले होकर कर्म स्वरूप शत्रुओं के विनाश के लिये पराक्रम करो, अर्थात् सदा-सर्वदा अप्रमत्त होकर सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग में हि प्रयाण करो !!! यहां “इति" शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है तथा “ब्रवीमि' शब्द से मैं याने सुधर्मस्वामी, हे जंबू ! जैसा वीर परमात्मा के मुखारविंद से सुना है, वैसा हि तुम्हें कहता हुं... इस प्रकार यहां श्री आचारांगसूत्र के प्रथमश्रुतस्कंध के सम्यक्त्व नामवाले चौथे अध्ययन में पहले उद्देशक की श्री शीलांकाचार्यजी-कृत टीका का हिंदी भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-अनुवाद पूर्ण हुआ... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में प्रमत्त और अप्रमत्त व्यक्ति के जीवन का विश्लेषण किया गया है। अप्रमत्त व्यक्ति सहिष्णु होता है। वह बाह्य कष्टों से घबराकर संयम मार्ग का त्याग नहीं करता, किंतु धैर्यता पूर्वक कष्टों को सहन कर लेता है। भयंकर परीषह भी उसके मन को विचलित नहीं कर सकते। क्योंकि- उसकी दृष्टि अंतर्मुखी होती है। आत्म साधना में तल्लीन वह साधक बाहिरी जीवन को स्वप्नवत् मानता है। अतः उसे बाह्य सुख-दुःख का संवेदन नहीं होता। प्रमादी जीव की स्थिति इससे विपरीत है। उसकी दृष्टि शरीर एवं भौतिक पदार्थों पर लगी रहती है। वह रात-दिन शरीर को सुशोभित करने परिपुष्ट बनाने एवं भौतिक भोगोपभोगों की अभिवृद्धि करने का उपाय ढुंढते रहता है। उसका चिन्तन एवं प्रयत्न बाह्य भोगों को बढ़ाने में लगा रहता है। इसलिए आरम्भमय जीवन एवं उसके दुःखद परिणाम को जानकर मुमुक्षु साधक भोगोपभोग के आरंभ-समारंभ से बचने का प्रयत्न करे। अर्थात् अपने योगों को संयम साधना में हि लगाए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। . // इति चतुर्थाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा