Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 368 // 1 - 5 - 1 - 1 (154) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अथवा जिसको गुरु-काम है; वह कर्म के चक्र में नहि है, क्योंकि- वह भिन्न ग्रंथिवाला होने से अर्धपुद्गल परावर्त्तकाल में अवश्यमेव कर्मो का क्षय करेगा हि... तथा वह कर्मो के चक्र से दूर भी नहि है, क्योंकि- देशोन कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला है... इसी प्रकार चारित्र की प्राप्ति होने पर भी वह मुनी पूर्वोक्त कारणों से कर्मो के चक्र के अंदर भी नहि है और. बाहर भी नहि है... अथवा जिन्होंने घातिकर्म का क्षय कीया है ऐसे केवलज्ञानी भी संसार के अंदर है / कि- बाहर है ऐसे प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- घातिकर्मो के क्षय होने से वे संसार के चक्र में नहि है, और अघाति कर्म अभी भी आत्मा के उपर होने से वे संसार चक्र के बाहर भी नहि है... ____ अब कहते हैं कि- जो जीव भिन्नग्रंथिक है, दुर्लभ ऐसे भी सम्यक्त्व को पाया हुआ है तथा संसार के पार मोक्षनगर के तीर याने किनारे पे रहा हुआ है, वह कैसे शुभअध्यवसायवाला होता है; इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : चतुर्थ अध्ययन में सम्यक्त्व का विवेचन किया गया है। सम्यक्त्व के बाद सम्यक् चारित्र का स्थान है। क्योंकि- सम्यग् दर्शन का महत्त्व चारित्र के विकास में है। इसलिए लोक में चारित्र ही साररूप माना गया है। प्रस्तुत अध्ययन का नाम भी लोकसार है। अतः इस अध्ययन में-चारित्र का विस्तृत विवेचन किया जाएगा... प्रस्तुत अध्ययन के नाम पर विचार करते हुए वृत्तिकार ने प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा हैं कि- लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्वाण-मोक्ष है। निष्कर्ष यह रहा कि- लोक का सार संयम है और संयमसाधना से मुक्ति प्राप्त होती है। संयम-साधना के अभाव में कोई भी व्यक्ति मोक्ष को नहीं पा सकता है... प्रस्तुत सूत्र में हिंसाजन्य फल का उल्लेख किया गया है। कुछ असंयत मनुष्य धर्म, अर्थ एवं काम के लिए अनेक जीवों की हिंसा करते रहते हैं। अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए तो स्पष्ट रूप से हिंसा होती ही है। परन्तु कुछ लोग धर्म के नाम पर किए जाने वाले यज्ञों एवं अन्य क्रियाकाण्डों में-पंचाग्नि, होम, आदि में अनेक जीवों की हिंसा करते हैं, वे प्रयोजन से या निष्प्रयोजन ही दूसरे प्राणियों का प्राण ले लेते हैं। जैसेकि- मनोविनोद के लिए शिकार आदि दुष्कर्मों के द्वारा प्राणियों की हिंसा करते हैं। और परिणामस्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके उन्हीं पृथ्वीकायादि 6 काय के जीवों में उत्पन्न होते रहते हैं, अर्थात् जन्म