Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-4 - 2 (170) 421 को पूरा कर लेता है। उसी तरह गुरु के अनुशासन में रहकर शिष्य ज्ञान सम्पन्न बन जाता . है। अतः श्रुत एवं ज्ञान साधना के लिए अगीतार्थ मुनि को गुरु की सेवा में रहना चाहिए और उनकी आज्ञा के विना अकेले नहीं विचरना चाहिए। ___ क्रोधादि के वश अकेले विचरने वाले मुनि की कैसी विषम स्थिति होती है ? इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 170 // 1-5-4-2 वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा, उण्णयमाणे य नरे महया मोहेण मुज्झइ, संबाहा बहवे भजो भुजो दुरइक्कम्मा अजाणओ अपासओ, एयं भे मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तद्दिठ्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे, जयं विहारी चित्तनिवाई पंथनिज्झाई पलिबाहिरे, पासिय पाणे गच्छिज्जा // 170 // II संस्कृत-छाया : वचसाऽपि एके उक्ताः कुप्यन्ति मानवाः, उन्नतमान: च नरः महता मोहेन मुह्यति। सम्बाधा: बहवः भूयो भूयः दुरतिक्रमाः अजानानस्य अपश्यतः, एतत् तव मा भवतु। एतत् कुशलस्य दर्शनम् / तद्-दृष्ट्या, तन्मुक्त्या तत्पुरस्कारे तत्सझी तनिवेशनः यतनया विहारी चित्तनिपाती पथनिायी परिबाह्यान् दृष्टवा प्राणिनः गच्छेत् // 170 // III सूत्रार्थ : जो मनुष्य गुरुजनों की हित शिक्षा से क्रोधित होते हैं; अहंकार के वश में होकर तथा महामोह के उदय से अज्ञानता में मूर्छित होकर गुरुजनों से पृथक् होकर विचरने लग जाते हैं, ऐसा करने से उन्हें उपसर्गादि जनित अनेक प्रकार की दुरतिक्रम बाधायें उपस्थित होती है। सम्यक् सहन करने के उपाय से अज्ञात और कर्म विपाक को न देखने के कारण उन परीषहादि बाधाओं से अत्यन्त दुःखी होकर वे चारित्र मार्ग से गिर जाते हैं। अतः गुरु अनुग्रहबुद्धि से कहते हैं कि- हे शिष्य ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी का यह दर्शन है कि- तुम्हारी यह उपरोक्त विषम दशा न हो, गुरु की दृष्टि से, सर्व प्रकार की निर्ममत्ववृत्ति से, प्रत्येक कार्य में गुरुजनों की आज्ञा को सन्मुख रखने से, गुरुओं के पास रहने से, और यत्नपूर्वक विचरने से, गुरुओं के चित्त की आराधना करनी चाहिए, एवं गुरुओं के मार्ग का अवलोकन करना चाहिए, गुरुओं की आज्ञा में रहना चाहिए, यदि गुरु कहीं पर भेजे तब मार्ग में प्राणियों की रक्षा करते हुए चलना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : कभी कोई समय तपश्चर्या एवं संयमानुष्ठान आदि में खेद होने पर... अथवा प्रमाद