Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-5-5-5 (177) 451 है, वह तू ही है, जिसको तू प्राणों से वियुक्त करना चाहता है, वह तू ही है। अतः ऋजुप्राज्ञ साधु प्रतिबुद्ध जीवन व्यतीत करनेवाला, अर्थात् ज्ञानयुक्त जीवन व्यतीत करनेवाला होता है। इसलिए किसी भी जीव को न मारे, और न मारने की प्रेरणा करे, तथा मारनेवाले की इस सावद्य क्रिया का अनुमोदन भी न करे, किन्तु इस प्रकार के भाव रखे कि- यदि मुझ से किसी प्रकार की हिंसा हो गई तो उसके कटु फल का अनुभव मुझे अवश्य करना पडेगा। अत: किसी भी जीव को मारने की प्रार्थना न करे, अर्थात् न मारे। IV . टीका-अनुवाद : हे मानव ! तुमने जो यह प्राणी वध के लिये सोचा है वह तुम हि हो, जैसे किआप को मस्तक, हाथ, पैर, पडखे, पीठ, उरु, उदर (पेट) है, वैसा हि इस जीव को भी है; कि- जिसका आपने वध करना चाहा है... तथा जिस प्रकार आपको कोइ मारने के लिये उद्यम करे तब उसको देखकर आपको दुःख होता है, वैसा हि अन्य प्राणी को भी दुःख होता है... और उसको दुःख देने से आपको पाप का बंध होता है... यहां सारांश यह है किआकाश तुल्य अरूपी शुद्ध आत्मा-जीव का वध होता हि नहि है किंतु शरीरस्थ-शरीरात्मा याने बहिरात्मा को मारने में अवश्य हिंसा का दोष लगता है... अर्थात् जहां कहिं भी संसारी आत्मा के आधार स्वरूप उस प्यारे शरीर का वियोग करने में अवश्य हिंसा हैं... कहा भी है कि- संज्ञी पंचेंद्रिय जीव को पांच इंद्रियां, तीन बल, श्वासोच्छवास और आयुष्य यह दश द्रव्य प्राण होतें हैं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है, और उन का जीव से वियोग करने में हिंसा मानी गइ है... तथा संसार में रहे हए जीव सर्वथा अमूर्त नहि है, कि- आकाश की तरह पीडा न हो, अत: हितोपदेश देते हुए कहते हैं कि- प्राणीओं के वध की जब भी इच्छा हो, तब वे प्राणी हमारे आत्म-तुल्य हि हैं, ऐसी भावना करें... यह बात यहां सूत्र के पदों से हि कहतें हैं कि- वह तुम हि हो, कि- जिसको कार्य के लिये आज्ञा देना चाहते हो, तथा वह तुम हि हो कि- जिसको आप परिताप (पीडा) देना चाहते हो, इसी प्रकार जिसको सेवक बनाना चाहते हो, और जिसको सर्वथा मार डालना चाहते हो, वह तुम हि हो... जैसे कि- आपका कोइ अनिष्ट करे तब आपको दुःख होता है, वैसे हि इन प्राणीओं को भी दुःख होता है... अथवा जिस पृथ्वीकायादि का वध करना चाहते हो, उस पृथ्वीकायादि में अपने भी अनेक बार जन्म लिया है, अत: वह पृथ्वीकायादि आप हि हो इत्यादि... इसी प्रकार मृषावाद आदि में भी योजना करें... अब कहतें हैं कि- जब वध करने योग्य और वध करनेवाला एक हि है, अतः मुमुक्षु साधु ऋजु याने सरल होकर एवं प्रतिबोध पाकर करुणालु होता है; और तत्त्व के परिज्ञान से