Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 495
________________ 454 // 1-5-5-6 (178) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भेद के अभाव मात्र से हि यदि आप दोनों में ऐक्य मानोगे तो वह भी आप की बात केवल बात हि कही जायेगी... जैसे कि... वस्त्र एवं उस में रही हुइ उज्जवलता के भेद का अभाव मात्र कहने से हि दोनों में ऐक्य नहि होता है, यहां भी उज्जवलता से भिन्न और कोई वस्त्र नहि है, ऐसा यदि आप कहोगे तो यह भी अशिक्षित के हि प्रलाप है... क्योंकि- उज्जवल गुण के विनाश में सर्वथा वस्त्र का अभाव हि होगा... अर्थात् वस्त्र स्वयं हि विनष्ट हुआ हि... ऐसा यदि आप कहोगे ? तो भले ! ऐसा हि कहो... हमे क्या नुकशान है ? क्योंकि- वस्तु अनंतधर्मवाली है, अतः अन्य मृदु आदि धर्मों के सद्भाव में उस उज्जवल धर्म के विनाश में भी वह वस्त्र तो अविनष्ट हि है... बस, इसी हि प्रकार प्रत्युत्पन्न ज्ञान के विनाश में भी अन्य अमूर्त आदि गुण एवं असंख्य प्रदेश तथा अगुरुलघु आदि धर्मो के सद्भाव से आत्मा का सर्वथा विनाश नहि है... इत्यादि इस बात का अब यहां अधिक विस्तार नहि करेंगे... प्रश्न- “जो आत्मा है; वह विज्ञाता है" ऐसा जो आपने कहा तो यहां तो कर्ता के अर्थ में “तृ' प्रत्यय है, अतः आत्मा हि कर्ता है... अत: जो आत्मा है; वह हि विज्ञाता है... ऐसा कहने में यहां विप्रतिपत्ति का अभाव है अर्थात् जानता है; इतनी हि बात है, किंतु जिस से जानता है; वह आत्मा से भिन्न भी हो शकता है... जैसे किउसे करण याने साधन या क्रिया कहेंगे कि- जो भिन्न हो.. गेहुं के पौधे को काटने में दात्र (दातरडु) करण (साधन) है और क्रिया या तो कर्ता में रहेगी या कर्म (गेहु) में रहेगी... इस प्रकार भेद की स्पष्ट संभावना होते हुए भी ऐक्य कैसे ? उत्तर- करण स्वरूप या क्रिया स्वरूप मति आदि ज्ञान से आत्मा वस्तु को सामान्य प्रकार से या विशेष प्रकार से जानता है, ऐसा होने में ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न है, ऐसा मानने की कोई आवश्यकता नहि है... क्योंकि- करण याने साधन होने के कारण से भेद होना जरुरी नहि है... एक वस्तु में हि कर्ता, कर्म एवं करण अभेद रूप से रह शकतें हैं... जैसे कि- देवदत्त अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को जानता है.. और क्रिया के विषय में आपने भी विकल्प से अभेद माना हि है... तथा जिन्हों का होना हि क्रिया है और वह हि कारक कहा जाता है... इत्यादि से एकत्व हि मानीयेगा जैसे कि- भवति, तिष्ठति इत्यादि... ___ अब ज्ञान एवं आत्मा का एकत्व मानने में जो कुछ घटित होता है, वह दिखलातें हैं कि- उस ज्ञानपरिणाम को लेकर हि उस आत्मा को आत्मा कहा जाता है... जैसे किइंद्र के विषय में जो उपयुक्त याने सावधान है, उसे इंद्र कहा जाता है... अथवा तो मतिज्ञान में उपयोगवाले आत्मा को मतिज्ञानी कहा जाता है... इसी हि प्रकार श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी

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