Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 494
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-5-6(178) 453 संसार में परिभ्रमण करता हैं। अतः यही उसकी मृत्यु है। इसलिए साधक को यह समझकर 'कि-जिसे मैं मार रहा हूँ, वह मैं ही हूँ, यह उस प्राणी की नहीं मेरी अपनी ही हिंसा है, ऐसा समझकर हिंसा से निवृत्त होना चाहिए। साधु को अपने आत्मज्ञान से सभी प्राणियों के स्वरूप को समझकर हिंसा से निवृत्त होना चाहिए। क्योंकि- जो आत्मा है; वह हि विज्ञाता है, अन्य नहीं। यहां कुमतवाले लोग आत्मा को ज्ञान से भिन्न मानते हैं। उन्हें संशय है कि- आत्मा और ज्ञान एक कैसे हो सकते हैं ? इसी संशय का निवारण कहते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 178 // 1-5-5-6 जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया, जेण वियाणइ से आया तं पडुच्च पडिसंखाए, एस आयावाई समियाए परियाए वियाहिए तिबेमि // 178 // II संस्कृत-छाया : यः आत्मा स: विज्ञाता, यः विज्ञाता सः आत्मा, येन विजानाति सः आत्मा, : तं प्रतीत्य प्रतिसङ्ख्यायते, एषः आत्मावादी शमितया पर्यायः व्याख्यातः इति ब्रवीमि // 178 // III सूत्रार्थ : जो आत्मा है; वह विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वह आत्मा है, जो जानता है; वह आत्मा है, अतः ज्ञान पर्याय की अपेक्षा से आत्मा को आत्मा कहा जाता है, इस प्रकार वह आत्मवादी कहा गया है, और उसका सम्यक् प्रकार से संयम पर्याय कहा गया है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : उपयोग लक्षणवाला एवं नित्य जो आत्मा है, वह हि विज्ञाता (जाननेवाला) है... आत्मा से सर्वथा भिन्न ऐसा और कोइ ज्ञान नामका गुण या पदार्थ विश्व में नहि है... तथा जो पदार्थों को जानता है; एवं उपयोगवाला है, वह हि आत्मा है... क्योंकि- जीव का लक्षण उपयोग है, एवं उपयोग ज्ञान स्वरूप हि है... _ "ज्ञान एवं आत्मा का अभेद कहने से बौद्धमत को मान्य ऐसा ज्ञान हि एक रहेगा" ऐसा यदि आप कहोगे तो हम कहते हैं कि- ऐसा नहि है... क्योंकि- यहां भेद का अभाव मात्र अपेक्षा से हि है। अतः ज्ञान एवं आत्मा दोनों अपेक्षा से एक नहि है...

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