Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 504
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-6 - 2 (180) 463 विश्व में और कौन अधर्म हो सकता है ? इस प्रकार सभी कुतीर्थिकों के वाद-विवाद का सर्वज्ञवाद से निराकरण करना चाहिये... यह सारांश है... कुमत के निराकरण स्वरूप सर्वज्ञप्रवाह को एवं कुमतवालों के प्रवाह को तीन प्रकार से जानना चाहिये... 1. सन्मति के द्वारा 2. पर-व्याकरण 3. अन्य से सुनकर... सन्मति = मतिज्ञान... ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से तत्काल उत्पन्न होनेवाली मति याने प्रतिभा... तथा अवधिज्ञान आदि के द्वारा वस्तुस्थिति का सच्चा निर्णय करें... अर्थात् मिथ्यात्वादि कलंक से रहित अच्छी याने शुभ मति से = मतिज्ञान से वस्तु स्थिति का सही सही निर्णय करें... क्योंकि- मतिज्ञान याने बुद्धि-प्रतिभा स्व एवं पर का अवभासक है... पर-व्याकरण = पर याने तीर्थंकर परमात्मा... और व्याकरण याने प्रश्नोत्तर अर्थात् परमात्मा के आगम-शास्त्र... क्योंकि- आगम-शास्त्र यथावस्थित वस्तु का बोधक है... अतः आगम-शास्त्र से वस्तु-स्थिति का सच्चा निर्णय करें... अन्य से सुनकर = कभी दुर्गम आगम सूत्र से सच्चा निर्णय न हो शके तब अन्य याने स्थविर आचार्य आदि के पास वस्तु-स्थिति का सही सही स्वरूप सुनकर निर्णय करें... .. वस्तु-स्थिति का सच्चा निर्णय करके क्या करना चाहिये ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में आध्यात्मिक विकास का मार्ग बताते हुए कहा गया है कि- जो व्यक्ति अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों से घबराता नहीं है, वही आत्म अभ्युदय के पथ पर बढ़ सकता है। परीषहों पर विजय प्राप्त करने के लिए साहस, शक्ति एवं श्रद्धा-निष्ठा का होना अनिवार्य है। जिस व्यक्ति को तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान है; एवं उन पर पूर्ण विश्वास है, वही व्यक्ति कठिनाई के समय भी अपने संयम मार्ग से विचलित नहीं होता और माता-पिता एवं अन्य परिजनों के आलम्बन की भी आकांक्षा नहीं रखता। क्योंकि- वह जानता है कि- उनका जीवन आरंभमय है। अत: उनके आश्रय में जाने का अर्थ है- आरंभ-समारंभ को बढ़ावा देना। और इस आरंभ-समारंभ की प्रवृत्ति से पाप कर्म का बन्ध होता है तथा संसार परिभ्रमण बढ़ता

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