Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 508
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-6 - 5 (183) 467 लिये सदा आगम-शास्त्र के निर्देश अनुसार पराक्रम = पुरुषार्थ करें... तथा... इस विषय में और भी अनेक बातें सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : संयम का विशुद्ध पालन करने के लिए साधक को आस्रव द्वार-कर्म आगमन के स्रोत से भली-भांति परिचित होना चाहिए। कर्मबन्ध के कारण को जानने वाला साधु उनसे बच सकता है। परन्तु; जो उनके यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता है, वह कर्मबन्ध के प्रवाह में बह जाता है। अत: उससे बचने के लिए साधक को सब से पहिले आस्रव द्वार को रोकना चाहिए। आगम में आठ प्रकार के कर्म बताए गए हैं। परन्तु, इन सब में मोहनीय कर्म की प्रधानता है। यह मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है और सम्यग्दर्शन एवं चारित्र को आवृत्त रखता है। इसके उदय से जीव विषय-वासना में संलग्न रहता है और परिणाम स्वरूप पापकर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता रहता है। इसी कारण मोहनीय कर्म को कर्म का स्रोत कहा है। यह ऊर्ध्व; अधो एवं मध्य लोक में सर्वत्र फैला हुआ है। तीनों लोक में स्थित जीव इसी कर्म के उदय से विषय-वासना एवं आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होते हैं। और उससे पापकर्म का बन्ध करके संसार में भटकते फिरते हैं। अत: संयमनिष्ठ साधु को बार-बार विषय-वासना से निवृत्त होकर साधना में संलग्न रहने का उपदेश दिया जाता है। इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से विशेष बात कहेंगे। I सूत्र // 5 // // 183 // 1-5-6-5 आवढे तु पेहाए इत्थ विरमिज्ज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ, इह आगई गई परिण्णाय // 183 // II संस्कृत-छाया : आवर्त तु उत्प्रेक्ष्य अत्र विरमेत् वेदवित्, विनेतुं स्रोतः, निष्क्रम्य एषः अहं अकर्मा जानाति पश्यति प्रत्युपेक्ष्य नाऽऽकाङ्क्षति, इह आगतिं गतिं परिज्ञाय // 183 // III सूत्रार्थ : वेदवित्-ज्ञानवान् पुरुष, संसार के कारणभूत भावस्रोत का विचार कर उसे छोड देता

Loading...

Page Navigation
1 ... 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528