Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 4621-5-6 - 2 (180) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ऐसे कर्तृत्व के विकल्प का संभव हि नहि है और नित्यता के कारण से भी प्रकृत्ति में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों का हि अभाव होता है... तथा पुरुष भी अकर्ता है; अत: संसार से उद्वेग पाना, तथा मोक्ष की उत्सुकता होना और मोक्ष सुख के भोक्ता होना इत्यादि का भी अभाव हि होगा... कहा भी है कि- निष्क्रिय स्वरूपवाला पुरुष (आत्मा) न तो विरक्त है, और न तो निर्विण्ण है, तथा भव के बंधन से भयभीत भी नहि है... और मोक्ष सुख का आकांक्षी भी नहि है... तथा क्षेत्र का भोक्ता निष्क्रिय होने से सांख्य मत में कौन प्रव्रजित हो ? तथा पुरुष निष्क्रिय होने से क्षेत्र का भोक्ता है; ऐसा भी कैसे मानेंगे ? इत्यादि... तथा बौद्धमतवाले कहते हैं कि- जो कुछ सत् है; वह सब क्षणिक हि हैं इत्यादि... अब उनसे पुछेगे कि- यदि वस्तु का निरन्वय नाश होता है, तो फिर किसी भी वस्तु का कोइ प्रतिनियत कार्य-कारण भाव होगा हि नहि... यदि आप ऐसा कहोगे कि- एक हि संतान अंतर्गतत्त्व के कारण से हि ऐसा होता है, तब हम कहेंगे कि- यह तो अशिक्षित के प्रलाप हैं... वह इस प्रकार- जैसे कि- संतानवाले के सिवा और किसी को संतान हो हि नहि शकता... और यदि ऐसा होने पर आप कहोगे कि- पूर्व के लक्षण का अवस्थायित्व हि यहां कारण है... तब तो ऐसा होगा कि- सब कुछ सबका कारण होगा... क्योंकि- सभी वस्तु पूर्वकालक्षणावस्थायी तो होती हि है... इत्यादि... तथा- जो घडा उत्पन्न होते हि तत्काल विनष्ट होता है; तो फिर वह घडा कौन खरीदेगा... और उत्पन्न होने के बाद तत्काल तुटनेवाले घडे में जल भी तो कैसे रहेगा ? इसी हि प्रकार उत्पन्न होने के बाद तत्काल विनष्ट होनेवाले आत्मा में धर्म एवं अधर्म की क्रिया कैसे संभवित होगी ? और क्रिया के अभाव में बंध कैसे हो ? और बंध के अभाव में मोक्ष भी किसका हो ? इत्यादि... , अब बृहस्पति मतवाले (चार्वाक) ऐसा कहतें हैं कि- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश यह पांच भूतों के संयोगसे चेतना उत्पन्न होती है, इत्यादि तथा आत्मा, पुन्य पाप और परलोक का अभाव कहनेवाले चार्वाक-मतवालों को कोइ मर्यादा का बंधन न होने से जनता के लोकव्यवहार-मार्ग का भी उल्लंघन करनेवाले उन चार्वाक मतवालों की उपेक्षा करना यह हि श्रेष्ठतर है... अर्थात् उपेक्षा मात्र से वे निरस्त हो जाएंगे... ____ अब्रह्म में हि राजी (खुशी) होनेवाले तथा परस्त्री के भोगोपभोग में रक्त ऐसे चार्वाक मतवालों ने माया-इंद्रजाल की तरह असत् याने अनुचित क्या क्या प्रवर्तन नहि किया है ? अर्थात् सब कुछ अनुचित हि किया है... तथा और भी कहा है कि- मिथ्या दृष्टि संसार के दुःखों को उत्पन्न करती है तथा मिथ्यामति विवेकशून्य भी होती है; इस स्थिति में अधम पुरुषों ने इसी मिथ्यामति को हि धर्म के लिये उपयुक्त मान लिया है; अतः उनके लिये इस