Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 460
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-4 -1(189) 419 समस्त उपद्रवो के कारण ऐसे एकाकी विहार को आचरे ? "उत्तर- कर्मो के विपाक में कुछ भी असंभवित नहि है... जैसे कि- स्वच्छंदता स्वरूप रोग के औषध समान, सभी उपद्रवों के प्रवाह को पार पाने में सेतु (पुलीयां) के समान, सकल कल्याणों के मंदिर (निवास स्थान) समान तथा शुभ आचरण के आधार ऐसे स्थविरकल्प-गच्छ में रहे हुओ साधु को भी क्वचित् (कहिं) प्रमाद के कारण से स्खलना (भूल-गलती) हो, तब गुरुजी की हितशिक्षा की अवगणना करके तथा सदुपदेश (हितशिक्षा) का चिंतन न करने के कारण से तथा शुभधर्म के स्वरूप का विचार न करने से तथा कषायों के विपाक की कटुता का विचार न करने के कारण से तथा कुलपुत्रत्व के भाव को परमार्थ से पीठ करनेवाले, कटुवचन सुनने मात्र से हि कोपायमान होनेवाले, विषय भोगोपभोग के अभिलाषी तथा आपत्तिओं का विचार नहि करनेवाले जो अगीतार्थ साधु मोहमूढता से जब कभी गच्छ से बाहर निकलतें हैं; तब वे इस जन्म में और जन्मांतर में अनेक दुःखों को पाते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- जिस प्रकार जो जो मच्छलीयां समुद्र के खलभलाट (क्षोभ) को सहन न करने के कारण से समुद्र से बाहर निकलते हैं, वे समुद्र से बाहर निकल ने मात्र से हि विनष्ट होती हैं... इसी प्रकार जो कोइ साधुजन गच्छ-समुद्र में सारण-वारणादि हितशिक्षा स्वरूप तरंगों से उद्वेग पाकर गच्छ से बाहर निकलते हैं, वे सुख पाने के बजाय निर्जलमच्छलीयों की तरह विनाश को पाते हैं। तथा पिंजरे में रहे हुए सुरक्षित पक्षी (पोपट-मेना वगैरह) बाहर निकलने के बाद जिस प्रकार दुःख पाते हैं, वैसा हि गच्छ में रहे हुए साधु-पुरुष सारण-वारणादि प्रकार से हितशिक्षा प्राप्त होने पर जब गच्छ का त्याग करतें हैं; तब वे संयम विराधना एवं आत्मविराधना स्वरूप अनेक कष्टों को प्राप्त करते हैं। तथा जिस प्रकार पांखें परिपक्व होने से पहले हि चिडीयां जब अपने माले से बाहर निकलती हैं, तब कौवे आदि से कष्ट पाकर मर जाती हैं; वैसे हि हितशिक्षा को दुःख मानकर अपरिपक्व स्थिति में जो अगीतार्थ साधु गच्छ से बाहर निकलता है, तब वह कुतीर्थिक स्वरूप कौवें से परिताप पाकर विनष्ट होता हैं V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में अकेले विचरने वाले साधु के जीवन का विश्लेषण किया गया है। इस में बताया गया है कि- जो साधु विना कारण हि गुरु की आज्ञा के विना अकेला विचरता है; उसे अनेक दोष लगने की संभावना है। पहिले तो लोगों के मन में अनेक तरह की शंकाएं

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