Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 465
________________ 424 1 -5-4-2 (170) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हि हमारे उपदेशवर्ती हैं... अब पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी कहते हैं कि- यह पूवोक्त अभिप्राय = विचार श्री वर्धमानस्वामीजी के हैं... जैसे कि- अव्यक्त (अगीतार्थ) ऐसे एकचर्यावालों को एकांत दोष हि है, तथा सतत गच्छ में आचार्य के समीप जो रहतें हैं; वे साधु गुण के पात्र होतें हैं... गच्छ में आचार्य के पास रहनेवाले साधुजन सदा आचार्यजी की दृष्टि अनुसार हि हेय एवं उपादेय में वर्तन करें... अथवा संयम में दृष्टि रखें, अथवा आगम में दृष्टि रखकर सभी कार्यों का व्यवहार करें तथा आगमसूत्र में कही गइ सर्वसंगों की मुक्ति के लिये सदा प्रयत्न करें... एवं सभी कार्यों में आचार्यजी को हि आगे करें, अर्थात् आचार्यजी के संकेत अनुसार हि सभी संयमानुष्ठान करें... अपनी मनोमति से कल्पित कोइ भी आचरण न करें...' ___तथा गुरुकुल में रहनेवाले साधुजन सदा यतना से विहार प्रतिलेखन आदि संयमानुष्ठान करें... तथा आचार्यजी के चित्त अनुसार संयमानुष्ठानमें प्रवर्तन करें... तथा आचार्यजी जब वसति से बाहर बहिर्भूमी आदि गये हों; तब उनके आगमन के मार्ग का अवलोकन करें... तथा शयन (निद्रा) की इच्छावाले आचार्यजी को संथारा बिछा दे एवं क्षुधा की पीडा में आहार आदि की गवेषणा द्वारा गुरुजी की सदा सेवा-भक्ति करनेवाले हो... तथा विशेष कार्य न हो तब गुरुजी के अवग्रह से बाहर रहें... तथा कभी कोई कार्य के लिये गुरुजी ने बाहर भेजा हो तब युगमात्र भूमी को ईर्यासमिति से देखकर प्राणीओं का वध न हो, इस प्रकार गमनागमन करें... v सूत्रसार : अव्यक्त अवस्था में-श्रुतज्ञान से सम्पन्न न होने के कारण, साधक अपने अन्दर स्थित कषायों का शमन नहीं कर सकता। कभी परिस्थिति वश उसका क्रोध प्रज्वलित हो उठता है और वह उस स्थिति में अपनी साधुता को भी भूल जाता है। कषायों के प्रवाह में उसे अपने हिताहित का भी ख्याल नहीं रहता। इसलिए वह कर्त्तव्य मार्ग से च्युत होकर पतन के गर्त में गिरने लगता है। आवेश के नशे में उसका भाषा पर भी अंकुश नहीं रहता। गुरु के सामने भी वह असंबद्ध बोलने लगता है और अपने आंतरिक दोषों को न देख कर गुरु के दोष निकालने का प्रयत्न करता है। और अपने दोषों पर पर्दा डालने के लिए वह दूसरे साधुओं के दोषों को सामने रख कर अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। वह अगीतार्थ साधु यह समझता है कि- गुरु मुझे हित शिक्षा नहीं दे रहे हैं, किंतु सबके सामने मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। इसलिए वह आवेश के वश गुरु के वचनों का अनादर

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