Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-5 - 2 (174) // 441 तब ऐसा चिंतन करे कि- “मैं भव्य (योग्य) नहि हुं, और मुझे संयमभाव भी नहि है... क्योंकिआचार्यजी आगमशास्त्र का अर्थ स्पष्ट एवं विस्तार से कहते हैं; तो भी मैं समझ नहि पाता..." इस प्रकार उद्वेग पानेवाले साधु को आचार्यजी समाधि देते हुए कहते हैं कि- हे साधुजी ! खेद मत करो ! आप भव्य (योग्य) हैं, क्योंकि- आपने सम्यक्त्व पाया है, और वह सम्यक्त्व ग्रंथिभेद के सिवा नहि होता... तथा मोह की ग्रंथि का भेद भव्यत्व के सिवा नहि हो शकता... और अभव्य-जीव को भव्य एवं अभव्य की शंका हि नहि होती... जब कि- वह शंका आपको हुइ है, अतः आप भव्य हि हैं... तथा यह विरति का परिणाम बारह कषायों के क्षय-क्षयोपशम या उपशम में से कोई भी एक के सद्भाव में हि होता है... और वह विरति-परिणाम आपने प्राप्त कीया है... इस प्रकार आपके. दर्शनमोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्मो का क्षयोपशम हआ है... क्योंकिमोहनीय कर्म के क्षयोपशम के सिवा यह विरति-परिणाम हो हि नहि शकता... तथा स्पष्ट एवं विस्तार से धर्मोपदेश कहने पर भी आपको जो समस्त पदार्थों का बोध नहि होता है, तो वहां ज्ञानावरणीय कर्म का उदय हि कारण है... अब यहां श्रद्धान स्वरूप सम्यक्त्व का आलंबन लेना चाहिये... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : आगम में आत्म विकास की 14 गुण-श्रेणियां मानी गई हैं। जिन्हें आगमिक भाषा में गुणस्थान कहते हैं। चतुर्थ गुणस्थान से आत्मा विकास की ओर सन्मुख होता है और 14 वें गुणस्थान में पहुंचकर वह अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है। इस तरह सम्यक् श्रद्धा से आत्मा विकास के पथ पर अग्रसर होता है और अयोगि अवस्था में पहुंचकर पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। इस विकास क्रम में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्यक् श्रद्धा के बल पर ही साधक साध्य को सिद्ध कर पाता है। इसलिए आगम में श्रद्धा को अत्यन्त दुर्लभ बताया गया है। क्योंकि- श्रद्धा पूर्वक पढ़ा गया श्रुत सम्यग्श्रुत कहलाता है और श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किया गया आचरण ही सम्यक् चारित्र के नाम से जाना-पहचाना जाता है; श्रद्धा या सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान एवं चारित्र दोनों सम्यग् नहीं रह पाते। सम्यक्श्रद्धा के अभाव में चारित्र भी सम्यग् नहीं रहता है। श्रद्धा विहीन साधक के चित्त में तत्त्व के प्रति नि:संशयता एवं चारित्र के परिणामों में स्थिरता नहीं रहती है और इस कारण उसके चित्त में समाधि भी नहीं रहती। क्योंकि- समाधि-शान्त चित्त की स्थिरता पर आधारित है और चित्त की स्थिरता शुद्ध श्रद्धा पर अवलम्बित है। अत: साधक को आचार्य एवं तीर्थंकरों के वचनों पर तथा श्रुत सिद्धांत में विश्वास रखना चाहिए। जो साधु श्रुत पर