Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-५-४-४ (172) 429 IV टीका-अनुवाद : - भूतकाल, भविष्यत्काल एवं वर्तमानकाल के प्रमाद आदि के फल स्वरूप कर्म के विपाक को देखनेवाला अर्थात् मात्र वर्तमानकाल को हि देखकर मन-चाहा आचरण न करनेवाला साधु प्राणीओं के रक्षण में उपाय स्वरूप तत्त्वज्ञान को पाया हुआ अथवा संसार एवं मोक्ष के कारणों को अच्छी तरह से जाननेवाला अर्थात् संसार के वास्तविक स्वरूप को जाननेवाला साधु, तथा उपशांत याने कषायों के उदय का अभाव अथवा इंद्रिय एवं मन के विकारों का उपशमन, तथा पांच समितियों से समित, अथवा अच्छी तरह से मोक्षमार्ग को पाया हुआ साधु, तथा ज्ञानादि गुणों से सहित, अथवा हितकारी कार्यों से युक्त तथा सदा याने हमेशा यतनावाला साधु अप्रमत्त होकर गुरुजी के पास रहकर प्रमाद से उत्पन्न हुए कर्मो का विनाश करता है... __जब स्त्री आदि का अनुकूल उपसर्ग हो; तब वह साधु ऐसा सोचे कि- यह स्त्रीजन उपसर्ग करने के लिये आयें हैं, किंतु मैं तो सम्यग्दृष्टि हुं, महाव्रतों की प्रतिज्ञा मैंने देव-गुरु के समक्ष ग्रहण की है, तथा शरद पूर्णिमा के चंद्र के समान निर्मल कुल में मेरा जन्म हुआ है... इत्यादि अनुकूल उपसर्ग में साधु-श्रमण चिंतन करें... तथा उन स्त्रीलोग संबंधित भी विचारें कि- यह स्त्रीजन जीवित की भी आशा नहि रखनेवाले तथा इस जन्म के विषयभोग की अभिलाषाओं के त्यागी ऐसे मुझ पे उपसर्गादि क्यों करतें हैं ? अथवा तो यह स्त्रीजन दुःख के प्रतिकार स्वरूप विषयभोग के सिवा और कोई वास्तविक सुख क्या मुझे देंगे ? अथवा पुत्र-पत्नी आदि स्वजनलोग भी क्या मरण के मुख में प्रवेश होने के समय मेरी रक्षा करेंगे ? अथवा व्याधि याने रोगों के उत्पन्न होने पर क्या मुझे रोगों की पीडासे बचाएंगे ? अथवा .तो परमाराम स्वरूप स्त्रीजनो का स्वभाव हि ऐसा है कि- तत्त्वज्ञानवाले साधु को भी हास्य विलास अंग-उपांगों के दर्शन आदि तथा कटाक्षों के द्वारा मोहित करते हैं... अतः इस विश्वमें जो कोइ स्त्रीजन हैं; वे मोह के कारण हैं, ऐसा जानकर साधु उनका त्याग करतें हैं अर्थात् स्त्रीजन यदि साधु को न तजें, तो साधु खुद अंतरात्मभाव में स्थिर होकर उन स्त्रीजनों का त्याग करें... यह बात केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी ने भव्य जीवों के हित के लिये कही है... ऐसा उल्लेख सूत्र से दिखाते हैं... जैसे कि- "इस लोक में स्त्रीजन भावबंधन स्वरूप है" तथा अपने अपने विषय में प्रवृत्त इंद्रियों से बाधा याने पीडा पानेवाले गच्छ में रहे हुए साधु को गुरुजन हितशिक्षा देते हैं कि- हे श्रमण ! आप नि:सार एवं अंत प्रांत (तुच्छसादा) आहार ग्रहण करो ! ऐसा करने से इंद्रियां उपशम (शांत) होती है... आहार के अभाव