Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-५-५-१ (173) // 435 पुरूष को समाधि मरण की आकांक्षा करते हुए पंचाचार स्वरूप संयमाचरण में संलग्न रहना चाहिए, ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : तीर्थंकर परमात्मा के उपदेश अनुसार आचार्य के संभवित गुणो को मैं कहता हूं... "अपि” शब्द यहां चतुर्भंगी का सूचक है... वह इस प्रकार१. ह्रद = जलाशय - परिगलत् श्रोतवाला है और पर्यागलत् श्रोतवाला है... 2. ह्रद = जलाशय - परिगलत् श्रोतवाला है; किंतु पर्यागलत् श्रोतवाला नहि है... 3. ह्रद = जलाशय - परिगलत् श्रोतवाला नहि किंतु पर्यागलत् श्रोतवाला है... 4. ह्रद = जलाशय - परिगलत् श्रोतवाला नहि और पर्यागलत् श्रोतवाला नहि है... इस चतुर्भंगी में प्रथम भंग का स्वरूप कहते हैं कि- आचार्यजी को एक द्रह याने जलाशय का रूपक देकर यह कहना चाहते हैं कि- द्रह याने जलाशय चार प्रकार के होतें हैं... उनमें से प्रथम प्रकार का द्रह वह है कि- जिस में जल का प्रवाह आता भी है, और निकलता भी है; जैसे कि- सीता एवं सीतोदा नदी के प्रवाह में रहे हुए कुरुक्षेत्र के पांच द्रह... तथा द्वितीय प्रकार का द्रह 'वह है कि- जिस में जल का प्रवाह आता नहि है, किंतु जल का प्रवाह अवश्य निकलता रहता है... जैसे कि- पद्म-द्रह... तथा तृतीय प्रकार का जलाशयलवण समुद्र जैसा है कि- जिस में जल का प्रवाह आता है, किंतु निकलता नहि है... तथा चौथा प्रकार का द्रह जलाशय-समुद्र वह है कि- जो मनुष्य लोकके बहार रहे हुए हैं, वे पुष्कर समुद्र आदि... क्योंकि- इन समुद्रों में न तो कोइ जल प्रवाह आता है. और न तो कोड जलप्रवाह निकलता है... - इन चार प्रकार में से जिस आचार्य महाराज की आत्मा में श्रुतज्ञान का प्रवाह आता है और जो आचार्य म. शिष्यों को श्रुतज्ञान का दान करतें भी हैं... इस प्रकार श्रुतज्ञान का दान एवं ग्रहण जहां हो रहा है, अर्थात् ऐसे आचार्यजी का इस प्रथम भंग में समावेश होता है... तथा द्वितीय भंग कि- जहां सांपरायिक (सकषाय) कर्मो के अभाव में अर्थात् कषायों के उदय का अभाव होने से अप्रमत्त मुनि को श्रुतज्ञान का ग्रहण नहि है; किंतु तपश्चर्या एवं कायोत्सर्ग आदि से सत्ता में रहे हुए कर्मों का क्षय अवश्य करते हैं... तथा आलोचना के विषय में तृतीय भंग इस प्रकार होता है कि- आलोचना अप्रतिश्नावी होती है अर्थात् अन्य कीसी को भी कही नहि जाती, किंतु आलोचना का श्रवण अवश्य करते हैं... तथा चौथे विकल्प = भंग का स्वरूप इस प्रकार है कि- आचार्यजी कुमार्ग में प्रवेश नहि करतें है, और यदि कुमार्ग में प्रवेश नहि है, तो फिर कुमार्ग से निकलने की बात तो रही हि नहि...