Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 1 - 5 (158) 381 को भी उस पाप-मार्ग पर प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित कहते हैं। इस तरह ऐसे व्यक्ति विषयकषाय आदि पाप कर्मों को करने में प्रवीण होते हैं। और भोली-भाली जनता के मन में तर्क के द्वारा अधर्म को धर्म बनाने में भी चतुर होते हैं / वे धर्माचरण से सदा विमुख रहते हैं। वे अज्ञान या अविद्या के द्वारा ही मोक्ष मानते हैं। ऐसे व्यक्ति धर्म के स्वरूप को नहीं जानते। अतः वे चार गति स्वरूप दुरंत संसार में परिभ्रमण करते हैं। ऐसे पापाचरणवाले व्यक्तियों के संसार का अन्त नहीं हो सकता। प्रस्तुत सूत्र में जो यह बताया गया है कि- निरपेक्ष एकाकी साधु के जीवन में विषयकषाय की अभिवृद्धि होती है। यह बात विषय-वासना के कारण पृथक् हुए साधु की अपेक्षा से कहा गया है; न कि सभी साधुओं के लिए। क्योंकि- कुछ साधक अकेले रहकर भी अपना आत्मविकास करते हैं और आगमकार भी उन्हें अकेले विचरने की आज्ञा देते हैं; दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में एकाकी विहार सामाचारी का विस्तार से वर्णन मिलता है। इससे स्पष्ट है कि- भिक्षु प्रतिमा स्वीकार करने के लिए, जिनकल्प पर्याय को ग्रहण करने के लिए, या किसी विशेष परिस्थितिवश मुनि, गुरु एवं संघ के आचार्य की आज्ञा लेकर अकेला विचरता है; तब वह अपने आत्म. गुणों में अभिवृद्धि करता है। अत: आचाराङ्ग सूत्र का यह पाठ उन मुनियों के लिए है, जो विशेष साधना एवं किसी विशिष्ट कारण के विना ही तथा गुरु आदि की आज्ञा लिए बिना ही अपनी विषय-वासना से प्रेरित होकर अकेले विचरते हैं। "इत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमई" की व्याख्या करते हुए लिखा है- “अत्र अस्मिन्नप्यर्हत्प्रणीतसंयमाभ्युपगमे बालो रागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः परिपच्यमानो वा विषयपिपासया रमते' अर्थात्-अर्हत् भगवान के शासन में दीक्षित होकर भी कोई कोई अज्ञानी साधु विषय-कषाय के वश पाप कर्म में रमण करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में रमइ रमते' वर्तमान कालिक क्रिया के प्रयोग से ऐसा प्रतीत होता है कि- सूत्रकार के समय में भी ऐसे व्यक्ति रहे हों। यहां कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं क्योंकि- मोह कर्म की उत्तर प्रकृतियों के कारण उस युग में भी संयम से पथ भ्रष्ट होना संभव हो सकता है।' 'माणव' शब्द से यह स्पष्ट किया गया है कि- मनुष्य ही मोक्ष की सम्यक् साधना कर सकता है। अन्य देवादि योनि से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। 'अविज्जाए पलिमुक्खमाहु' का तात्पर्य है कि- जो अज्ञानी साधु ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप विद्या से विपरीत अज्ञानादि अविद्या के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं; वे धर्म तत्त्व से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। 'तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें।