Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॥१-५-3-२(१६५)卐 403 सावद्ययोग के त्याग स्वरूप उत्थान नहिं है, अतः प्रतिज्ञा स्वरूप मेरू पर्वत के उपर चढने के अभाव में निपतन का तो अभाव हि होता है... शाक्यादि मतवाले भी चौथे भंग में इस प्रकार आते हैं... जैसे कि- उनहों ने पांच महाव्रतों के भार को उठाया हि नहि है; अत: वे सावद्य योगवाले हि हैं, इसलिये वे पूवोत्थायी नहि हैं... और निपात तो उत्थान के बाद हि होता है; अतः निपात भी नहि है; इस प्रकार वे गृहस्थों के समान हि हैं... क्योंकि- उन दोनों के उदायिनृप को मारनेवाले विनयरत्न साधु की तरह आश्रवों के द्वार खुले हि हैं...' ___तथा और भी जो ऐसे सावध अनुष्ठानवाले हैं, वे भी ऐसे हि हैं... जैसे कि- जैनमत में भी रहे हुए पासत्थादि साधुलोग दो प्रकार की परिज्ञा से लोक को जानकर और त्याग करके पुनः पचन एवं पाचनादि प्रकार से उस लोक के हि आश्रय को ढूंढनेवाले वे गृहस्थों के समान हि है... "यह बात हम अपनी मति कल्पना से नहि कहतें हैं" इस बात की स्पष्टता के लिये सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में विचार-चिन्तन की विचित्रता का दिग्दर्शन कराया गया है। कुछ व्यक्ति जीवन में त्याग-वैराग्य की भावना लेकर साधना पथ पर चलने को उद्यत होते हैं और प्रतिक्षण त्याग-वैराग्य को बढ़ाते चलते हैं। साधना के प्रारंभ समय से लेकर जीवन के अन्तिम क्षण तक वे दृढ़ता के साथ संयम में स्थिर रहते हैं। गणधरों की तरह उनकी साधना में उत्तरोत्तर उज्ज्वलता एवं तेजस्विता आती रहती है। इस तरह से प्रतिक्षण विकास करते हुए अपने साध्य को सिद्ध कर लेते है। कुछ व्यक्ति त्याग वैराग्य की ज्योति लेकर दीक्षित होते हैं। प्रारंभ में उनके विचारों में तेजस्विता होती है, परन्तु पीछे परीषहों के उत्पन्न होने पर मन विचलित हो उठता है। साधना की ज्योति धूमिल पड़ने लगती है। उनके विचारों में शिथिलता आने लगती है। और वे पतन की ओर लुढ़कने लगते हैं। शारीरिक एवं मानसिक प्रमाद के प्रबल झोकों के सामने त्याग-वैराग्य की घनघोर घटाएं स्थिर नहीं रह पातीं। इस तरह कष्ट सहिष्णुता की कमी के कारण वे साधना पथ पर स्थित नहीं रह सकते हैं। परीषहों के उपस्थित होते ही पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। ... त्याग-वैराग्य भाव से संयम ग्रहण करना और अन्तिम क्षण तक उसका दृढ़ता से